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रविवार, 15 अगस्त 2010
दुखी मन मेरे मन मेरा कहना जहाँ नहीं चैना वहां........
अंग्रेजों के भारत से चले जाने के ६३ साल बाद एक बार फिर हमे हर तरफ वही घिसी-पिटी तकरीरें सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं. वही पुराने शीर्षक 'हम कितने आज़ाद हुए.......', 'सच्ची आज़ादी कब मिलेगी.....', 'आज़ादी के मायने.....' 'क्या हम सचमुच आज़ाद हैं.....?' घुमा फिर कर हर लेख में यही बात है कि हमारे महापुरुषों ने जिस मकसद से आजादी हासिल की थी वो पूरा नहीं हुआ.
बड़ी दिक्कत है भाई. मैं बड़ा कन्फ्यूज़ हूँ. अभी पिछले साल जब चीन ने अपना ६० वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाया तो हमारी आँखें फटी रह गईं. हमारे टीवी चैनलों ने तो चीनी सेना और भारतीय सेना की जोरशोर से तुलना भी शुरू कर दी. सबसे ज्यादा बुरा तो यह लगा कि कुछ चैनलों ने चीनी सेना को हमारी सेना से दुगुना ताकतवर बताते हुए यह कहना शुरू कर दिया कि अगर युद्ध हुआ तो हमारी सेना अमेरिका की सेना के साथ मिलकर चीनी सेना के छक्के छुड़ा देगी. हालांकि नवम्बर २००९ में चीन के तीन दिवसीय दौरे पर गये ओबामा ने कश्मीर के मसले में चीन को पंचायत का स्कोप देकर कई भ्रम मिटा दिए.
हम हिन्दुस्तानी पता नहीं किस सपने रहते हैं. ये होना चाहिए. ये होगा तो ये हो जायेगा. पता नहीं क्या-क्या सोचते रहते हैं. बस करते उतना ही हैं जितने से अपना काम चल जाए. अब देखिये ना! १५ अगस्त आया नहीं कि एक से एक वक्तव्य आने लगे. कोई फर्जी उपलब्धियों का बखान कर रहा है तो कोई सबको कुंठित करने में जुटा है. जबकि दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं उन्हें देश से कोई लेना-देना नहीं है. बस! कुछ बोलना है, लिखना है सो कोरम पूरा कर दिया.
बड़ी बिनम्रता से मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि देश के बारे में आप जब भी कुछ अच्छा या कड़वा सच बोलें तो याद रखें कि सिर्फ बयानबाज़ी या लेखन से किसी देश के हालात नहीं बदला करते. यदि आप वाकई हालात बदलने के लिए गंभीर हैं तो फिर आपको ईमानदार कोशिश करनी होगी.यह कहने से काम नहीं चलेगा कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. या तो आप कुछ करके बदलाव की नीव डालिए या फिर चुप रहिये. अगर ये दोनों नहीं कर सकते और वाकई हालात से दुखी हैं तो फिर फंटूश फिल्म में किशोर कुमार द्वारा गया वो गाना याद कीजिये......दुखी मन मेरे मन मेरा कहना......जहाँ नहीं चैना वहां नहीं रहना!
रविवार, 8 अगस्त 2010
दुधारू की दुल्लती
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
सोमवार, 12 जुलाई 2010
मंगलवार, 4 मई 2010
गुरूजी से क्या भूल हुई!
सत्येंद्र श्रीवास्तव, वाराणसी रौनाखुर्द, बेला (चोलापुर) निवासी लौटन प्रसाद वर्मा को दोनों पैरों में जंजीर बांधकर रखा जा रहा है। वह महज पांच साल पहले सहायक अध्यापक थे। बच्चों को ककहरा पढ़ाते थे। अब चारपाई की बाध (रस्सी) गिन रहे हैं। उन्हें अंग्रेजी की वर्णमाला भी नहीं भूली है। इसकी तस्दीक गांव-गिरांव के बच्चे करते हैं। इन बच्चों को ही तो देखकर उनके मुंह से ए, बी, सी, डी..निकलने लगता है। यह सब उस दौर में हो रहा है जब मानवाधिकार के नाम पर खड़े हुए हौवे ने पुलिस मुठभेड़ों में भारी कमी ला दी है। परिवारों के मसले में मानवाधिकार का सवाल खड़ा होने लगा है। ऐसे दौर में लौटन प्रसाद वर्मा के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव चौंकानेवाला है। खास यह कि इस ओर नजर डालने की जहमत भी किसी झंडाबरदार ने नहीं उठाई है। बावजूद इसके कि लौटन प्रसाद को जंजीर लगाने वाले परिजन इस मसले को खुद बार-बार प्रशासन के पास ले जाते रहे हैं। फिर भी लौटन प्रसाद की दशा में सुधार की गुंजाइश नहीं दिख रही है। दरअसल, लौटन प्रसाद के पागल हो जाने के पीछे भी एक कहानी है और इसके सूत्रधारों की कारस्तानियों ने एक हंसते-खेलते परिवार को बदहाल कर दिया है। लौटन प्रसाद के परिवार में पांच बेटियां और एक बेटा है। तीन बेटियों की शादी हो चुकी है। दो युवा बेटियों की शादी की चिंता उनकी पत्नी शांति देवी को खाए जा रही है। इनकी (पति) हालत ठीक होती तो कोई बात नहीं थी। इन्हें तो इनके साथियों ने ही पागल कर दिया। उनका बेटा संतोष बीकॉम पास है। वह पिता के पागलपन को एक साजिश बताता है। संतोष का साफ कहना है कि श्री विश्वकर्मा पूर्व माध्यमिक विद्यालय, रौनाखुर्द में उसके पिता लौटन प्रसाद वर्मा 6 दिसंबर 1977 को बतौर सहायक अध्यापक तैनात हुए। आगे चलकर प्रबंधन से जुड़े कतिपय लोगों के मन में लालच आ गया। किसी चहेते की नियुक्ति के लिए तानाबाना बुना गया। पिताजी पर अत्याचार शुरू हो गए। प्राचार्य के सामने साथी अध्यापकों ने जूता तक साफ कराया। फिर भी प्रबंधन की ओर से ऐसा करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। इन बातों का लौटन प्रसाद के दिमाग पर गहरा असर हो गया। वह लोगों से नजरें चुराने लगे। इसकी तस्दीक उनसे मिलकर ही हो जाती है। मिलते ही वह अपने चेहरे को हाथों से ढंकने की कोशिश करते हैं। पूछने पर सिर्फ अपना नाम बताते हैं। दूसरे सवाल छिड़ते ही उनकी बेचैनी बढ़ जाती है। परिजन कहते हैं-पहले ऐसे नहीं थे। शायद विद्यालय में हुए सार्वजनिक अपमान की वजह से ही उनमें मनोरोग के लक्षण उभरने लगे। 1 नवंबर 2004 से 15 सितंबर 2005 तक इलाज भी कराया गया। इलाज के दौरान लौटन प्रसाद वर्मा विद्यालय में अनियमित हो गए थे। इसका बाकायदा सरकारी डॉक्टर का मेडिकल सर्टिफिकेट दिया गया। फिर भी विद्यालय प्रबंधन ने उन पर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का दबाव बनाना शुरू कर दिया। उनकी बीए पास बेटी कुसुम कहती है-पिताजी को वर्ष 2009 में रिटायर होना था लेकिन उनसे 2006 में वीआरएस पर दस्तखत करा लिया गया। इसके बाद पिताजी की हालत बिगड़ती चली गई। एक स्थिति ये आई कि वह इधर-उधर भागने-दौड़ने लगे।
इस स्थिति में लौटन प्रसाद के साथ कोई अनहोनी न हो जाए इससे बचने के लिए घर में चारपाई पर दोनों पैरों में जंजीर बांधकर रखा जाता है। सुधबुध खो चुके लौटन प्रसाद अपनी बेबस आंखों से अपनी बगिया को बदहाल देख रहे हैं। इनकी स्थिति पर तरस खाने की बजाय विद्यालय प्रबंधन ने उनके सेवानिवृत्ति के बाद के पावने रिलीज कराने में रुचि नहीं ले रहा है। इतना ही नहीं परिवार पर लगातार इस बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है कि वीआरएस डेट 2004 कर दी जाए। लौटन प्रसाद वर्मा की पेंशन-ग्रेच्युटी तक का भुगतान नहीं हो रहा है। खास बात यह कि इसकी शिकायत शिक्षा विभाग ही नहीं कलेक्टर तक से की जा चुकी है। फिर भी सुनवाई नहीं हो रही है। पत्नी शांति देवी कहती हैं-बेटियों की शादी हो जाए, घर चली जाएं तब कोई ंिचंता नहीं रहेगी। बेटे-बहू कहीं और रह लेंगे। तब कम से कम पैरों से जंजीर खोलने की बात तो सोच सकतेसत्येंद्र श्रीवास्तव, वाराणसी रौनाखुर्द, बेला (चोलापुर) निवासी लौटन प्रसाद वर्मा को दोनों पैरों में जंजीर बांधकर रखा जा रहा है। वह महज पांच साल पहले सहायक अध्यापक थे। बच्चों को ककहरा पढ़ाते थे। अब चारपाई की बाध (रस्सी) गिन रहे हैं। उन्हें अंग्रेजी की वर्णमाला भी नहीं भूली है। इसकी तस्दीक गांव-गिरांव के बच्चे करते हैं। इन बच्चों को ही तो देखकर उनके मुंह से ए, बी, सी, डी..निकलने लगता है। यह सब उस दौर में हो रहा है जब मानवाधिकार के नाम पर खड़े हुए हौवे ने पुलिस मुठभेड़ों में भारी कमी ला दी है। परिवारों के मसले में मानवाधिकार का सवाल खड़ा होने लगा है। ऐसे दौर में लौटन प्रसाद वर्मा के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव चौंकानेवाला है। खास यह कि इस ओर नजर डालने की जहमत भी किसी झंडाबरदार ने नहीं उठाई है। बावजूद इसके कि लौटन प्रसाद को जंजीर लगाने वाले परिजन इस मसले को खुद बार-बार प्रशासन के पास ले जाते रहे हैं। फिर भी लौटन प्रसाद की दशा में सुधार की गुंजाइश नहीं दिख रही है। दरअसल, लौटन प्रसाद के पागल हो जाने के पीछे भी एक कहानी है और इसके सूत्रधारों की कारस्तानियों ने एक हंसते-खेलते परिवार को बदहाल कर दिया है। लौटन प्रसाद के परिवार में पांच बेटियां और एक बेटा है। तीन बेटियों की शादी हो चुकी है। दो युवा बेटियों की शादी की चिंता उनकी पत्नी शांति देवी को खाए जा रही है। इनकी (पति) हालत ठीक होती तो कोई बात नहीं थी। इन्हें तो इनके साथियों ने ही पागल कर दिया। उनका बेटा संतोष बीकॉम पास है। वह पिता के पागलपन को एक साजिश बताता है। संतोष का साफ कहना है कि श्री विश्वकर्मा पूर्व माध्यमिक विद्यालय, रौनाखुर्द में उसके पिता लौटन प्रसाद वर्मा 6 दिसंबर 1977 को बतौर सहायक अध्यापक तैनात हुए। आगे चलकर प्रबंधन से जुड़े कतिपय लोगों के मन में लालच आ गया। किसी चहेते की नियुक्ति के लिए तानाबाना बुना गया। पिताजी पर अत्याचार शुरू हो गए। प्राचार्य के सामने साथी अध्यापकों ने जूता तक साफ कराया। फिर भी प्रबंधन की ओर से ऐसा करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। इन बातों का लौटन प्रसाद के दिमाग पर गहरा असर हो गया। वह लोगों से नजरें चुराने लगे। इसकी तस्दीक उनसे मिलकर ही हो जाती है। मिलते ही वह अपने चेहरे को हाथों से ढंकने की कोशिश करते हैं। पूछने पर सिर्फ अपना नाम बताते हैं। दूसरे सवाल छिड़ते ही उनकी बेचैनी बढ़ जाती है। परिजन कहते हैं-पहले ऐसे नहीं थे। शायद विद्यालय में हुए सार्वजनिक अपमान की वजह से ही उनमें मनोरोग के लक्षण उभरने लगे। 1 नवंबर 2004 से 15 सितंबर 2005 तक इलाज भी कराया गया। इलाज के दौरान लौटन प्रसाद वर्मा विद्यालय में अनियमित हो गए थे। इसका बाकायदा सरकारी डॉक्टर का मेडिकल सर्टिफिकेट दिया गया। फिर भी विद्यालय प्रबंधन ने उन पर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का दबाव बनाना शुरू कर दिया। उनकी बीए पास बेटी कुसुम कहती है-पिताजी को वर्ष 2009 में रिटायर होना था लेकिन उनसे 2006 में वीआरएस पर दस्तखत करा लिया गया। इसके बाद पिताजी की हालत बिगड़ती चली गई। एक स्थिति ये आई कि वह इधर-उधर भागने-दौड़ने लगे। इस स्थिति में लौटन प्रसाद के साथ कोई अनहोनी न हो जाए इससे बचने के लिए घर में चारपाई पर दोनों पैरों में जंजीर बांधकर रखा जाता है। सुधबुध खो चुके लौटन प्रसाद अपनी बेबस आंखों से अपनी बगिया को बदहाल देख रहे हैं। इनकी स्थिति पर तरस खाने की बजाय विद्यालय प्रबंधन ने उनके सेवानिवृत्ति के बाद के पावने रिलीज कराने में रुचि नहीं ले रहा है। इतना ही नहीं परिवार पर लगातार इस बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है कि वीआरएस डेट 2004 कर दी जाए। लौटन प्रसाद वर्मा की पेंशन-ग्रेच्युटी तक का भुगतान नहीं हो रहा है। खास बात यह कि इसकी शिकायत शिक्षा विभाग ही नहीं कलेक्टर तक से की जा चुकी है। फिर भी सुनवाई नहीं हो रही है। पत्नी शांति देवी कहती हैं-बेटियों की शादी हो जाए, घर चली जाएं तब कोई ंिचंता नहीं रहेगी। बेटे-बहू कहीं और रह लेंगे। तब कम से कम पैरों से जंजीर खोलने की बात तो सोच सकते!
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
ब्रेकिंग न्यूज़! पूर्व डी.एस.पी शैलेन्द्र प्रताप छोड़ेंगे कांग्रेस
एस.टी.एफ डी.एस.पी की नौकरी छोड़कर राजनीति में दांव आजमाने वाले शैलेन्द्र प्रताप सिंह ने अब कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया है. शैलेन्द्र, कांग्रेस में अपराधियों की घुसपैठ से नाराज़ हैं. विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि शैलेन्द्र एक -दो रोज़ में कांग्रेस छोड़ने का एलान कर सकते हैं.
गौरतलब है कि कांग्रेस में शैलेन्द्र, सूचना का अधिकार टास्क फोर्स के बतौर प्रमुख काम करते हैं. पिछले तीन सालों से शैलेन्द्र इस टास्क फ़ोर्स के जरिये मायावती सरकार की आँख की किरकिरी बन गए थे. सितम्बर २००८ में सरकार ने आधी रात को शैलेन्द्र को लखनऊ स्थित आवास से गिरफ्तार करवा लिया था. हजरतगंज थाने में सारी रात हवालात में काटने के बाद कांग्रेस ने उनकी गिरफ्तारी को पूरे प्रदेश में मुद्दा बना दिया था. तब पार्टी की प्रदेश अध्यछ रीता बहुगुणा शैलेन्द्र की गिरफ्तारी को मुद्दा बनाने में सबसे आगे थीं. लेकिन यही रीता बहुगुणा और कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह ने बाहुबली विधायक अजय राय के घर जाकर चाय पी और शैलेन्द्र को नाराज़ कर लिया. शैलेन्द्र जब डी.एस.पी थे तब अजय राय एस.टी.एफ की हिट लिस्ट में हुआ करते थे. कुछ दिन पहले ही तुलसी सिंह को कांग्रेस ज्वाइन कराई गई. तुलसी सिंह मकोका में जेल जा चुके हैं.
मिशन २०१२ में जुटी कांग्रेस ने हाल में दस स्थानों से रथ यात्रा निकाली है लेकिन बुलंदशहर में यह यात्रा 'बार डांसर्स' की वजह से विवादों में आ गई. शैलेन्द्र प्रताप कांग्रेस के इस भटकाव से खफा हैं. शैलेन्द्र की नाराज़गी की एक और वजह है. पिछले १९ अप्रैल को शैलेन्द्र प्रताप की अगुवाई में दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना और मार्च का कार्यक्रम था. उस कार्यक्रम में दिग्विजिय सिंह को जाना था लेकिन ऐंन वक्त दिग्विजय ने फोन करके शैलेन्द्र को बताया कि वे नहीं आ सकते. चिलचिलाती धूप में शैलेन्द्र की अगुवाई में अपने खर्चे से गए करीब छ हज़ार गरीब मायूस होकर लौटे. पुलिस ने उन्हें सडकों पर निकलने नहीं दिया और कांग्रेस का कोई नेता उनसे मिलने नहीं गया. मायूस गरीबों ने शैलेन्द्र से यह कहकर अपनी शिकायत दर्ज कराई कि क्या राहुल गाँधी गरीब दलितों की बस्ती में जाकर महज नाटक करते हैं.
नाराज़ शैलेन्द्र ने अपनी शिकायतों का पुलिंदा सीधे राहुल गाँधी को भेजा है. लेकिन अभी तक उन्हें कोई जबाब नहीं मिला है. राहुल गाँधी की चुप्पी और प्रदेश कांग्रेस नेताओं के रवैये से शैलेन्द्र की नाराज़गी और बढ़ गई है. सूत्रों की माने तो ये नाराजगी बहुत जल्द उनके इस्तीफे में बदल सकती है.
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
चिदंबरम साहब ऐसे तो नहीं जाएगा नक्सलवाद!
गृहमंत्री पी.चिदंबरम की क़ाबलियत पर देश में शायद ही किसी को संदेह होगा. लेकिन नक्सलवाद के सफाए लिए पिछले कुछ अरसे से उनकी हर बात उलटी पड़ रही है. छः अप्रैल को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के जंगलों में 76 सीआरपीएफ के जवानों को नक्सलवादियों ने जिस तरह निशाना बनाया वो शर्मनाक है. सरकार को समीछा करनी पड़ेगी कि आखिर क्यों हमारे प्रशिछित सुरछाबल जरा सी विपरीत परिस्थितियों में मुंह के बल गिरते हैं. कमी कहाँ है? गृह मंत्री के तौर पर यह घटना मिस्टर चिदंबरम के लिए व्यक्तिगत रूप से सोचनीय है. उन्हें मंथन करना चाहिए कि आखिर क्यों पिछले एक साल से बतौर गृहमंत्री वे जब भी नक्सलवाद के सफाए की बात करते हैं, नक्सली और ज्यादा मज़बूत हो जाते हैं. मि.चिदंबरम को अपना कन्फ्यूज़न भी दूर करना होगा. पता नहीं क्यों वे कभी नक्सलवादियों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं तो कभी उनसे बातचीत की पेशकश करते हैं. अभी एक हफ्ते पहले ही केंद्र सरकार ने मीडिया में करोड़ों के विज्ञापन जारी कर नक्सलियों से बातचीत का रास्ता अख्तियार करने और मुख्यधारा में लौट आने की अपील की थी. फिर मि.चिदंबरम पश्चिम बंगाल पहुँच गए और बुद्धदेव की सरकार पर नक्सलवादियों के प्रति नरम रुख रखने का आरोप लगाने लगे. मि.चिदंबरम ने कहा कि राज्य सरकारों को नक्सलवादियों के सफाए के लिए केंद्र से तालमेल बिठाना चाहिए. दंतेवाड़ा के जंगलों में जो कुछ हुआ उसे भी राज्य ख़ुफ़िया विभाग की विफलता बता कर चिदंबरम पल्ला झड़ने की कोशिश में लगे हैं. गृहमंत्री के रूप में जिम्मेदारी लेने से बचने की उनकी कोशिशों का पहले पश्चिम बंगाल फिर छत्तीसगढ़ की सरकार ने कड़ा विरोध किया है. उधर दंतेवाड़ा की घटना ने अन्दर ही अन्दर केंद्र सरकार को हिलाकर रख दिया है. भीतर से मि. चिदंबरम भी समझ रहे हैं की समस्या की जड़ कहाँ है और कमी किस स्तर पर है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि फिलहाल वे राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं कर रहे. सवाल ये है कि क्या यह राजनीति नासूर बनते जा रहे नक्सलवाद से थोड़ी भी राहत दिला पाएगी. जब तक सरकारें नक्सलवाद की विचारधारा के उदभव स्थल तक नहीं पहुंचतीं तब तक राहत मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता. नक्सलवाद और आतंकवाद के फर्क को समझना होगा. मजहब के नाम पर खून बहाने वालों और खोखली ही सही पर क्रांति के नाम पर हिंसा को जायज ठहराने वाले गुमराह नौजवानों में कुछ तो अंतर होगा. जाहिर है सरकार को दोनों से निपटना है लेकिन दोनों के लिए तरीका तो अलग-अलग होना चाहिए ना. उदारीकरण जैसे भ्रम से भरे शब्द का इस्तेमाल कर देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया के लिए खोल देने वाले मनमोहन सिंह ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक इंटरव्यू में बड़ी मासूमियत से कबूल किया था कि भूमंडलीकरण के पहले चरण में गरीबी बढ़ेगी. मनमोहन सिंह की खासियत यह है कि वे खतरनाक से खतरनाक बात मुस्कुराते हुए बड़ी सहजता से कहते हैं. लेकिन बात जब देश में बढ़ती गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से निपटने की हो तो डाक्टर सिंह की यह सहजता काम नहीं आती. नक्सलवाद के मसले पर भी वे अप्रसांगिक हो जाते हैं. गृहमंत्री चिदंबरम भी कुछ कर नहीं पा रहे. बस राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी डालने की राजनीति करके काम चला रहे हैं. कानून व्यवस्था राज्य का विषय है यह कौन नहीं जानता लेकिन नक्सलवाद की समस्या का समाधान अकेले राज्य तो नहीं कर सकते. केन्द्रीय सुरछाबलों और राज्य मशीनरी के बीच तालमेल जरूरी है लेकिन सही मायनों में तालमेल के लिए कोरी राजनीति से ऊपर उठकर ईमानदार कोशिशें होनी चाहियें.
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
कठिन डगर
साथी मिले बहुत
काँटों से चुभें
पथरीले पथ
हम तन्हा चलें
पहचानो ना पहचानो
क्या फर्क पड़े
कभी ऊंचाई कभी निचाई
तब संसार बने
ऐ वो छलिये
तूने इस जग में
कितने प्रपंच रचे
होलिया की हूक
भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री दिनेश त्रिवेदी २० फरवरी को गोरखपुर जा रहे हैं. वे वहां एन्सेफलाईटिस से लगातार हो रही मौतों पर अंकुश लगाने का प्रयास करेंगे. उनके पहले केंद्र से वेक्टर बोर्न डिसीज कण्ट्रोल की एक टीम भी जा रही है. केन्द्रीय मंत्री और वेक्टर बोर्न डिसीज़ कण्ट्रोल टीम के गोरखपुर जाने की खबर ने एक बार फिर उम्मीद जगाई है कि शायद पिछले ३० सालों से जारी एन्सेफलाईटिस का कहर अब थम जाएगा. लेकिन इसके साथ ही कुछ लाजमी आशंकाएं भी हैं. जो इस इलाके के कभी भी एन्सेफलाईटिस के चंगुल से बाहर न निकल पाने की कड़वी हकीकत में तब्दील हो सकती हैं. जाहिर है हम सबकी दुआ है कि ये आशंकाएं सच ना साबित हों और राज्यमंत्री के दौरे के कुछ सार्थक नतीजे निकलें. दुर्भाग्य से इस राह में कई रोड़े नज़र आ रहे हैं. चूंकि त्रिवेदी के पहले अम्बूमणिरामदौस भी केन्द्रीय स्वास्थ्यमंत्री के तौर पर इसी काम से गोरखपुर जाकर नाकाम हो चुके हैं. इन स्वास्थ्य मंत्रियों के अलावा राहुल गाँधी, टी.वी.राजेस्वर, अमर सिंह, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जैसवाल, महावीर प्रसाद, मुलायम सिंह यादव आदि भी इस मामले में अपनी ताकत आजमा चुके हैं लेकिन एन्सेफलाईटिस के मच्छर का कुछ नहीं बिगाड़ पाए. फिर भी राज्यमंत्री भारत सरकार का दौरा इस लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह फरवरी महीने में हो रहा है. एन्सेफलाईटिस की मौतों के सीज़न के तीन महीने पहले. केन्द्रीय मंत्री चाहें तो तीन महीने के इस वक्त का इस्तेमाल एन्सेफलाईटिस के खात्मे के लिए कर सकते हैं. लेकिन आशंका यही है कि मंत्री ऐसा करने के बजाये अपना ध्यान सिर्फ एन्सेफलाईटिस पीडतों के इलाज़ तक सीमित रखेंगे. दरअसल पिछले पांच सालों के दौरान हुआ भी यही है. सलमान खुर्शीद से लेकर राहुल गाँधी तक और राहुल गाँधी से लेकर मुलायम सिंह तक सब बारी-बारी गोरखपुर मेडिकल कॉलेज पहुँच चुके हैं. इनमे से हर एक पहले नेहरु चिकित्सालय के एन्सेफलाईटिस वार्ड में गया, फिर मेडिकल कॉलेज के कांफ्रेन्स हाल या सर्किट हाउस में अधिकारियों के साथ बैठक की. नतीजा क्या निकला. महाशून्य!
तो क्या राज्यमंत्री भी एन्सेफलाईटिस वार्ड में फोटो खिंचवा कर लौट जायेंगे? या फिर वाकई उनकी नीयत इस बार कुछ कर गुजरने की है. वे कर तो सकते हैं. क्योंकि अभी एन्सेफलाईटिस का सीज़न शुरू होने में तीन महीने का वक्त बाकी है. इस बीच गैर सरकारी मशीनरी ने एन्सेफलाईटिस वार्ड के बाहर ऐसा काफी कुछ किया है जिसे सरकार को जानना चाहिए. होलिया एक प्रतीक बनकर उभरा है. एक जनवरी को हम सब वहां गए थे. राज्यमंत्री को भी जाना चाहिए. होलिया का कोई भी बच्चा उन्हें बता देगा कि एन्सेफलाईटिस का समाधान क्या है. जो हल शर्तिया तौर पर उनके लालबुझकड़ अधिकारियों की बैठक में नहीं निकलने वाला वो हल होलिया में जरूर निकल आएगा. राज्यमंत्री वहां जाते तो शायद गाँव-गाँव में एन्सेफलाईटिस उन्मूलन की बयार बहने लगती. शायद सरकार को रास्ट्रीय या प्रादेशिक स्तर पर एन्सेफलाईटिस उन्मूलन कार्यक्रम लागू करने की सदबुद्धि आ जाती और शायद अगले तीन महीने में हम सेकड़ों और बच्चों को मौत की गोद में ना जाने देने की व्यवस्था कर पाते.
रविवार, 17 जनवरी 2010
ताज़ा हवा के झोंके की तरह जल्द आ रहा है........
बुधवार, 6 जनवरी 2010
दोस्त-दोस्त ना रहा
दोस्ती निभाने के मामले में मुलायम सिंह यादव का रिकॉर्ड बहुत खराब हो गया है। वैसे कुछ लोगों को ये भी लगने लगा है कि कभी खुद को धरतीपुत्र और समाजवादी कहने वाले मुलायम की, एन.टी.रामाराव जैसी गति हो सकती है। लेकिन दिक्कत यह है कि तेलगुदेशम पार्टी की तरह समाजवादी पार्टी में अभी तक कोई चन्द्रबाबू नायडू नहीं उभरा है, जो पार्टी को संभाल सके। बहरहाल, मुलायम का जो भी होगा उसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार भी वही होंगे। अभी तो हम उन्हें अमर सिंह द्वारा ताज़ा-ताज़ा दिए गए जख्मों पर लगाने के लिए सिर्फ जुबानी मरहम ही दे सकते हैं। वैसे यह देखना भी जरुरी है कि सालों से चली आ रही इस दोस्ती की टूटन में ज्यादा जख्म, मुलायम को मिलें हैं या अमर को। अमर, लम्बे अरसे से पार्टी में सिर्फ मुलायम के भरोसे थे। घोर परिवारवादी मुलायम- रामगोपाल, अखिलेश, शिवपाल और धर्मेन्द्र से उनकी रछा करते भी तो कब तक। यह ठीक है कि अमर, सपा के फंड मैनेज़र रहे हैं लेकिन लम्बे समय तक 'फटहा' पहन कर, पोलिटिक्स करने वाले समाजवादियों को 'फंडिंग' का महत्त्व समझाकर मुलायम, आखिर कब तक चुप कराते। फिरोजाबाद में मुलायम की पतोहू डिम्पल हारी तो सबकी आँखों में 'अमर' शूल की तरह चुभने लगे। सबको लगा कि राजबब्बर ने अमर से नाराज़ होकर पार्टी ना छोड़ी होती तो आज यह दिन ना देखना पड़ता। फिरोजाबाद की हार के पहले आम लोकसभा चुनाव में भी मुलायम हार का सामना कर चुके थे। इत्तेफाक से तब आज़म खान ने भी पार्टी छोड़ते वक्त अमर को ही निशाना बनाया था। कल्याण सिंह सपा में आकर फेल हुए तो उन्हें सपा में लाने का ठीकरा भी अमर के सिर ही फोड़ा गया। दरअसल कई सालों से अमर को लगने लगा था कि सपा में अच्छी बातों का श्रेय तो उन्हें मिलता नहीं लेकिन हर बुरी चीज़ का ठीकरा उन्हीं पर फोड़ा जाता है। अमर सिंह-'अमिताभ, संजय दत्त, जया प्रदा, अनिल अम्बानी, जया बच्चन से लगायत क्लिंटन और हिलेरी तक को पार्टीहित में साध लें, तो कोई चर्चा नहीं होती।' उल्टे मोहन सिंह, रेवती रमण सिंह, जनेश्वर मिश्र और रामगोपाल यादव जैसे पढ़े-लिखे नेता, उनका मज़ाक ही उड़ाते हैं। मोहन सिंह ने हाल ही में वाराणसी में बोलते हुए कहा कि ,''अब ये दिन आ गया है कि उनके जैसे समाजवादी को चुनाव लड़ने के लिए अमर सिंह 'जैसों से' पैसा लेना पड़ता है।'' जबाब में अमर ने कहा था कि "तो क्या अगले चुनाव में मोहन सिंह को सिर्फ समाजवाद पर कुछ किताबें भिजवा दूं! मोहन सिंह को अगर यही कहना था तो फिर उन्होंने रूपया लिया ही क्यों?"
कुछ दिन पहले ही जब अमर ने एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में पार्टी हाईकमान के अतिआत्मविश्वास को फिरोजाबाद की हार के लिए जिम्मेदार ठहराया तो रामगोपाल यादव ने उन्हें उनकी हैसियत बताने में जरा भी देर नहीं लगाई थी। अमर, अगर मुलायम की कमजोरी ना होते तो शायद तभी उनके रास्ते अलग हो गए होते। मुलायम अपने पूरे कुनबे के साथ अमर को मनाने ना पहुंचे होते। लेकिन उसके बाद अभी एक-दो दिन पहले ही फिर रामगोपाल ने अमर को एक ऐसी चिठ्ठी लिखी जिसमे मुलायम और जनेश्वर को पार्टी का नेता और बाकी सब (अमर सहित) को सहयोगी बताया गया था। जो पार्टी, दशकों से संघर्ष का रास्ता भूलकर सिर्फ अमर सिंह के फंड और उनकी बदौलत वाली वालीवुड के ग्लैमर पर चल रही हो वहां अमर, भला इतनी बेईज्ज़ती, सहते भी तो कैसे? वैसे अमर और समाजवादी पार्टी की टूटन से घाटा या मुनाफा, अगले चुनावों में, समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन से, मापा जायेगा। अगर सपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो माना जायेगा की अमर की वजह से उसकी तेज़स्विता धूमिल हो रही थी. वरना माना जायेगा कि अमर ने वक्त रहते सही राह चुन ली। वैसे इतना तो तय है कि अमर की नज़रों में अब सपा का कोई भविष्य नहीं बचा है। अमर को लगने लगा था कि वे पार्टी पर जितना लगाते या लगवाते हैं पार्टी उतना रिकवर नहीं कर पा रही है. और ना ही आगे करने की कोई उम्मीद है। यूपी में माया के बाद लगता है मुलायम की जगह कांग्रेस लेने लगी है। दिल्ली में अमर ना हों तो सपाइयों को भला कौन पूछेगा। अमर सिंह फिलहाल बीमार हैं। लेकिन इतने भी नहीं कि अपना फायदा भूल जाएँ। इस्तीफ़ा देने के पहले उन्होंने कम से कम सौ बार सोचा होगा। निश्चित ही हर बार उन्हें पार्टी से दूरी, पार्टी की नजदीकी से, ज्यादा फायदेमंद लगी होगी। तभी उन्होंने इस्तीफ़ा दिया है। लेकिन अरब टके का सवाल ये है कि इस्तीफ़ा देने के बाद खाली वक्त में अमर क्या करेंगे। बच्चों का होमवर्क कराएँगे? बच्चन परिवार की स्थाई सदस्यता के नाते ऐश्वर्या की गोद जल्दी भरने की दुवाएं मांगेंगे? टीना-अनिल अम्बानी को मंदिरों के दर्शन कराएँगे? या फिर अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में नई नौकरी तलाशेंगे!
रविवार, 3 जनवरी 2010
उत्तरायण गच्छामि!
सूर्य १५ जनवरी को उत्तरायण में प्रवेश करेंगे। इस दिन पूरे देश में उत्सव होगा। कहीं मकर संक्रांति, कहीं खिचड़ी, कहीं पोंगल तो कहीं लोहड़ी। मान्यता के अनुसार इसी दिन से कड़ाके की ठण्ड भी अपना मिजाज़ बदल लेगी। मौसम में खुशगवारी आ जाएगी। कलियाँ फूल की शक्ल ले लेंगी तो पेड़ों पर आई नई पत्तियां चारों ओर हरयाली के मनमोहनी नज़ारों को नुमाया कराएंगी। ऐसे मौसम में पशु-पछी-पेड़-पौधे और सृष्टि के अन्य भौतिक-लौकिक, चर-अचर अकस्मात् कुछ अधिक सुन्दर लगने लगेंगे। स्वाभाविक है कि इंसानों पर भी इसका असर पड़ेगा। हमारे यहाँ बसंत में लोगों पर चढ़ा प्रेम का मद फाल्गुन आते-आते चरम पर होता है। सृष्टि के साथ-साथ उसमे शामिल हर वस्तु प्यारी लगने लगती है। विशेषकर विपरीत लिंग के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। किशोरावस्था में तो ह्रदय की धडकनों पर कोई जोर ही नहीं होता। हमारे यहाँ पश्चिम की तरह वेलेंटाईन डे मनाने का प्रचलन दो दशक पहले ही शुरू हुआ है लेकिन प्रेम प्रदर्शन की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। कालिदास के शाकुंतलम या वात्सायन के कामसूत्र से ही नहीं बल्कि देश के कोने-कोने की लोकसंस्कृति में प्रेमी-प्रेयसी के वार्तालाप और संबंधों के वृत्तांत मिल जाते हैं। खजुराहो की प्रेमक्रीडा सम्बन्धी मूर्तियाँ विश्व प्रसिद्ध हैं परन्तु हमारे देश में प्रेम को परिभाषित करने के लिए किसी मूर्ति की आवश्यकता नहीं है। यहाँ तो जन-जन के ह्रदय में प्रेम बसा है। हज़ारों वर्ष पूर्व जनकपुर स्वयंबर में गये श्रीरामचन्द्र जी ने वाटिका में पुष्प चुनने आईं जानकी को देखकर ही उनसे विवाह का निश्चय कर लिया था। राधा और गोपियों संग श्रीकृष्ण की रासलीला सारे जग में प्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म में हुए इन दो प्रमुख भगवत अवतारों ने मानव जीवन में प्रेम की महत्ता का प्रसार ही किया। वैसे प्रेम की महत्ता समझने के लिए हमें किसी ग्रन्थ की भी जरूरत नहीं। हमारे यहाँ तो बचपन से लेकर युवावस्था और युवावस्था से वृद्धवस्था तक अगर कोई अनिवार्य भाव है तो वह है प्रेम। यह बसंत ऋतु प्रेम की उस भावना के उद्दवेलन के लिए सबसे अनुकूल है। उत्तरायण के दिन सारे देश में सार्वजानिक रूप से यही होता है। कुछ स्थानों पर विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसान इस दिन इश्वर के दरबार में अपनी पहली फसल का प्रसाद चढाते हैं ताकि इश्वर की कृपादृष्टी बनी रहे। युगों पहले हिमांचल के ज्वाला माता गुफा से भिछाटन करते-करते भैरो बाबा के शिष्य गोरखनाथ बाबा गोरखपुर पहुंचे। वहां उनके मंदिर में सदियों से खिचड़ी चढाने की परम्परा है। हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी वहां देश के कोने-कोने से लाखों लोग खिचड़ी चढाने जायेंगे। मंदिर परिसर में एक महीने तक मेला चलेगा। कुछ लोग गोरखपुर के इस मंदिर को पूर्वांचल के राजनितिक केंद्र के रूप में भी देखते हैं। ऐसा केंद्र जिसपर विभिन्न कारणों से हिन्दू कट्टरता के आरोप लगते हैं। यह धारणा खिचड़ी मेला के दौरान बेमानी सिद्ध होती है। इस मेला में मुसलमान ही नहीं इसाई भी बड़ी शिद्दत से शिरकत करते हैं। इसी तरह सम्प्रदायिक दंगों के लिए बदनाम गुजरात में भी इस दिन धर्म की दीवारें नज़र नहीं आतीं। यहाँ सुल्तानों के शासनकाल में इस दिन धार्मिक आयोजनों के बाद मनोरंजन के लिए पतंगबाजी की शुरुआत हुई। पतंगबाजी आज परम्परा की शक्ल ले चुकी है। नबाबों के शहर लखनऊ में भी पतंगबाजी जोर-शोर से होती है। भारत की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहाँ हिन्दू-मुसलमान-सिख-इसाई-पारसी-बौध-जैन और अन्य धर्मों के बीच मतभेदों के बावजूद सांझी विरासत का एहसास कहीं गहरे व्याप्त है। मकर संक्रांति से इस सांझी विरासत का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं परन्तु इस दिन अनायास ही हमें इसका सार्वजनिक प्रदर्शन देखने को मिल जाता है।
शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
ऐन एरिया ऑफ़ डार्कनेस
३१ दिसम्बर २००९ की शाम जब पूरी दुनिया पुराने साल की बिदाई और नये साल के स्वागत में जुटी थी। ठीक उसी वक्त सर वी.एस.नायपाल की पुस्तक, 'ऐन एरिया ऑफ़ डार्कनेस' में उल्लिखित 'गोरखपुर', से सटे, होलिया गांव में, कुछ 'सिरफिरे', तेज़ हवाओं के बीच, दीयों की रौशनी से अँधेरा मिटाने पर तुले थे। बामुश्किल १०० किलोमीटर दूर, कहीं नेपाल की पहाड़ियों से आती बर्फीली हवाएं, देह चीर देने को आतुर थीं। गांव का घुप अँधेरा, मिटाए न मिटता था। कईयों ने कहा कि एक तो जानलेवा ठण्ड, दूजे तेज़ हवाएं, दीयों की 'लो', जलने ना देंगी। लेकिन भीड़ से अलग नज़र आने वाला, बिल्कुल श्वेत बालों और श्याम रंग का, एक शख्स, हर चिंता से दूर, मुस्कुराते हुए, सबकी हौसला हाफजई में लगा था। मानो! लछ्य की पवित्रता के एहसास ने, कामयाबी को, 'अवश्यम्भावी' बना दिया हो। एक अद्भुत, अलौकिक एहसास। शोहरत की तमाम बुलंदियां, जिसके आगे, फीकी पड़ जाएँ। ख़ुद की किसी हस्ती का पता ही न चले। कुशीनगर के होलिया गांव के लिए, अँधेरा, कोई नयी बात नहीं। लेकिन २०१० की पूर्वसंध्या पर, मानो! इश्वर ने ख़ुद, यहाँ प्रभात की पहली किरण को, न्यौता भेजा हो। पुरानी कहावत है- अँधेरा, जब सबसे गहरा हो, समझना, सबेरा होने वाला है। 'होलिया' ने, सालों इस सबेरे का इंतज़ार किया है। अंधेरे की आदत ने, वक्त, नामालूम कर दिया है। इसीलिए तो १९७८ से मातम मना रही एन्सेफलाईटिस, आज भी यहाँ, 'नौकी' बीमारी के नाम से, पहचानी जाती है। गांव में, चाय की दुकान पर मौजूद विश्वेश्वर कहता है ,' नौकी बीमारी से हमरे गांव के कई लईके मर गईलें, बाकिर केहू नाही आईल, इतना बरिस में प्रधान-प्रमुख-विधायक बहुत भईलें, सब कर कोठी-बंगला-गाड़ी हो गईल। लेकिन गांव के बच्चन के नौकी बीमारी से बचावे की खातिर केहू कुच्छु ना कईलस।' भोले! विश्वेश्वर को, लगता है आज भी, उसके गांव, बहरूपिये नेताओं की कोई टोली या भ्रष्ट सरकारी मशीनरी के नुमाइंदे आए हुए हैं। वो कहता है,'' पहीले कुछ भोंपू (टीवी चैनल) वाले आइल रहलन। हल्ला भईल रहल, जिनकर लईके मरल बाटें, उनके मुआवजा मिली, चर-चर (चार-चार) हज़ार रूपया। वईसे गांव वालन की खातिर, सरकार, बहुत कुछ भेजे ले। लेकिन प्रधान जी, खाली आपन कोठी, बनवावत बाटें। सब अंधेर नगरी बा। सरकार पूरा ज्वार में टीका लगवईलस। बस यही गांव के, छोड़ दिहलस, अब देखीं, ई डॉक्टर लोग, आईल बाटिन, का होला? कहलें ता बालन, मुआवजा मिली। अब इतना लोगों के बिच्चे में, बात भईल बा, ता देवे के, ता चाहीं।'
दरअसल, विश्वेश्वर सहित, सबको, अगली सुबह का इंतज़ार है। जब दीयों की ये रौशनी, सूरज की विराटता से, शरमा कर, कहीं खो जायेगी और दिन के उजाले में , डॉक्टर आर.एन.सिंह इस गांव में, अपनी प्रस्तावित योजना, 'नीप' ( एन्सेफलाईटिस उन्मूलन अभियान) के दसों सूत्र, एक साल के लिए, लागू करेंगे। गांववालों के बीच, इन दस में से, एक- मुआवजे के सूत्र की, सबसे ज्यादा चर्चा है। दो महीने पहले, जब नीप के चीफ प्रचारक आर एन सिंह ने, इस गांव में आकर और प्रेस कांफ्रेंस कर, पहली बार नीप ग्राम योजना का एलान किया । ठीक तभी से, गांव में उनकी भलमनसाहत और नेकदिली के साथ, मुआवजे की चर्चा भी, शुरू हो गई थी। आज गांव वालों के लिए, आर.एन.सिंह की परख की, पहली कसौटी भी वही है। सबको देखना है- वाकई मुआवजा मिलता है! या फ़िर, जैसा हमेशा होता है, वैसे ही, इस बार भी, घोषणा के बाद, ऊपर ही ऊपर ही, बंदरबांट हो जाएगी। ये मुआवजा, आख़िर क्यों दिया जा रहा है? कौन दे रहा है? नीप क्या है? और क्या नीप के तहत सिर्फ़ मुआवजा ही दिया जाना है? गांव वालों के लिए, फिलहाल, इन प्रश्नों का, कोई मतलब नहीं। पहले तो देखना है, शहर से आठ-दस गाड़ियां, डाक्टरों और 'भोपू' वालों को लेकर आया, यह शख्स, वादे के मुताबिक़, रूपया देता है, या नहीं। पहले रूपया मिले, फ़िर ही, आगे बात होगी। वरना तो, सब झूठों में, ये एक, 'नया' झूठा। गांव वालों की रात, बेचैनी में कटी। प्रसिद्ध नाटककार, लेखक और लोकगायक हरी प्रसाद सिंह की स्वरलहरियां भी, इस बेचैनी को, दूर नहीं कर पायीं।
ये रात, डाक्टर सिंह की टोली में शामिल, हम २५-३० जनों के लिए भी, एक नया तजुर्बा थी। दूसरे पहर, हमारी टोली, अपनी विश्रामस्थली, होलिया से करीब तीन किलोमीटर दूर, पिपराईच कस्बे के, अग्रवाल धर्मशाला पहुँची। इस धर्मशाला में, पहुँचते ही मैंने, ईटीवी के ब्यूरो चीफ रोहित सिंह से कहा, 'पहले बड़े लोग, वाकई, बड़े हुआ करते थे। वरना आज के जमाने में, गांव का, कौन धन्नासेठ, पाँच-छः हज़ार वर्गफीट जमीन पर, पन्द्रह-बीस लाख की लागत से यूँ धर्मशाला बनवाकर, समाज के हवाले कर देगा।' जबाब में, रोहित सिंह ने कहा,'आजकल लालाओं का दिल, अपनी बीबियों को, बर्थडे पर दिए तोहफे, मसलन, मालाबार हिल्स पर कोई बंगला या पर्सनल एयरक्राफ्ट से, मापा जाता है।'
हमारी टोली के मुखिया डाक्टर आर.एन.सिंह, बाकी युवा सदस्यों से, ज्यादा उत्साहित, अपने काम में, जुटे थे। 'इस कमरे में चारपाईयां बिछाओ , उधर गद्दे ले जाओ, अरे लिट्टी-चोखा में अभी कितनी देर है, कुछ आग तापने का इंतजाम हो सकता है क्या?' तभी डाक्टर सिंह की असली ताकत, उनकी बहन स्नेह सिंह एक प्लेट में, कुछ नमकीन -बिस्किट और काजू की बर्फियां लेकर आयीं। दोपहर से ही गांव में लगे रहने के चलते, पूरी टोली भूखी थी। ठण्ड के मारे, जान निकल रही थी। सब रजाइयों में घुसकर, जल्द से जल्द, सो जाना चाहते थे। लेकिन हमारे कमरे में, चूंकि टोली का, सबसे 'अशांत' शख्स, मौजूद था, इसलिए भोज़न के बाद, अगला पहर भी, बहस-मुहबिसे में गुज़रा। जब उस अशांत शख्स ने, हमे (मुझे और रोहित सिंह को) सोने की इज़ाज़त दी, जाने क्या वक्त हुआ था। लेकिन सुबह साढ़े पाँच बजे से भी पहले, 'गुड मोर्न्निंग बोथ ऑफ़ यू एंड विश यू अ वैरी हैप्पी न्यू इयर' जैसे शब्द, कानो में गूंजने लगे। याद आया, ' कभी मेरे पापा, यूँ ही सुबह-सुबह जगाते, तो ना चाहते हुए भी, बिस्तर से तुरंत बाहर, आना ही पड़ता था।' डाक्टर सिंह ने चेताया 'जल्दी से फ्रेश हो लें, नहीं तो, पानी चला जाएगा।' हमने एक नज़र उन्हें देखा, 'आप सोये कब?', 'यकीन मानिए! मैंने नीद भी पूरी की और फ्रेश भी हो लिया।' डाक्टर सिंह का जबाब था। रोहित सिंह और मैं, अब जल्द से जल्द, गांव पहुंचना चाहते थे। डाक्टर सिंह ख़ुद बेचैन थे। उन्होंने आज ख़ास तौर पर, पहली बार, सफ़ेद कुरता पैजामा और उसपर, भूरी 'गांधियन' जाकेट, पहनी थी। बरामदे में, चहलकदमी करते हुए, स्नेह सिंह को, प्रेस रिलीज़ के लिए, डिकटेशन देते वक्त, बार-बार उनका ध्यान, भटक जाता था। मन में, गांव पहुँचने की, जल्दी थी। लेकिन उतनी ही शिद्दत से, रोहित सिंह को, पाँच सालों से चल रहे, अपने काम का, लेखा-जोखा भी, दिखाना चाहते थे। फाइल में, कागजों का पुलिंदा। हर कागज़, ख़ुद में, एक कहानी समेटे। डाक्टर सिंह, क्या दिखाएँ-क्या छोड़ें ! कोई भी, उनकी बेचैनी देखकर, ताज्जुब कर सकता है- आख़िर बच्चों का ये डाक्टर, ६० की उमर में, छह बरस के बच्चे जैसी, 'उत्सुकता', कहाँ से लाता है।
बाबा भोलेनाथ ने, होलिया के मुहाने पर, डेरा जमा रखा है। २०१० की पहली सुबह - पहला काम, हमने वहीं, मत्था टेकने का किया। गांव में, उस समय तक, नीप का पांडाल, लग चुका था। ९ डिग्री सेल्सियस, तापमान के बीच, शरीर कंपा देने वाली, ठंडी हवाएं, अभी भी, चल रही थीं। हरी प्रसाद सिंह मंच संभाल चुके थे। लेकिन पांडाल में गांववाले, इक्का-दुक्का ही थे। हमारी टोली पहुँची, तो थोड़ी देर बाद, गोरखपुर से डाक्टर वीणा, डाक्टर मनीष, व्यापारी बालानी, लहरी और श्रीनाथ अग्रवाल भी, पहुँच गये। उनके साथ, गोजेऐ के अध्यछ रत्नाकर सिंह, महामंत्री मुमताज़ खान, सहारा समय के ब्यूरो चीफ शक्ति श्रीवास्तव, एसपी सिंह सहित, कई पत्रकार भी थे। इन सबके लिए, नये साल की ऐसी शुरुआत, बेहतर थी। गांव की एक चाय की दुकान पर, गोजेऐ अध्यछ रत्नाकर सिंह ने दार्शनिक अंदाज़ में सवाल उछाला, 'इस दौर में, एक पत्रकार को अपने कैरीएर में, कितनी बार, ऐसा मौका मिलता है, जब वो जनसरोकार से जुड़े, ऐसे किसी मुद्दे पर, लेखनी से इतर, कुछ काम कर सके ?'
चाय के बाद, हम पांडाल में लौटे, तो वहां, भाषणों का सिलसिला, चल पड़ा था। डाक्टर सिंह के साथ, कुछ साथी, गांव में फोगिंग कर रहे थे। वे भी, थोड़ी देर में लौट आए। अब पांडाल, खचाखच भरा था। गांववालों का बहुप्रतिछित 'मुआवजा', अब बंटने जा रहा था। तभी, मंच पर संजू आई। संजू! जिसे एन्सेफलाईटिस की बीमारी ने, उम्र भर के लिए, विकलांग बना दिया। जो अब, न ठीक से, बोल सकती है न ही, दूसरा कोई काम, कर सकती है। लिस्ट में मुआवजे के लिए, संजू का नाम नहीं था। लेकिन वो बोली, तो सबकी आँखें नम। सब, साँस बांधे, सिर्फ़ उसे ही सुनते रहे। माईक पर, आर.एन.सिंह का गला भी, रुंध गया। व्यापारी बालानी से, रहा नहीं गया। एलान कर दिया, ' इस लड़की की पढ़ाई-लिखी-शादी-ब्याह, सबका जिम्मा मेरा।' गांव में एन्सेफलाईटिस से मरे, चार बच्चों के माँ-पिता को, चार-चार हज़ार रूपया, बतौर मुआवजा, दिया गया। इसी बीच, सचिदानंद सिंह का नाम, पुकारा गया। जिनके एकलौते भतीजे को भी ये बीमारी, लील गयी थी। सचिदानंद सिंह ने, मुआवजा लेने से, इनकार कर दिया। उन्होंने कहा,' ये मुआवजा, किसी और, जरूरतमंद को दे दो। बल्कि गांव में सफाई के काम के लिए, जो खर्च हो, वो भी, मुझसे ले लो। लेकिन काम होना चाहिए।' सचिदानंद सिंह की दिलेरी ने सबका मन मोह लिया। तब तक १२ बज चुके थे। मुझे आज ही वापस लखनऊ लौटना था। सो! मैंने जल्दी-जल्दी डाक्टर सिंह से विदा ली और रोहित सिंह और अखिलेश के साथ, गोरखपुर के लिए निकल पड़ा। रास्ते भर, हमारे बीच यही चर्चा होती रही। क्या होलिया का अभियान सफल होगा? क्या सरकार को वहां फोगिंग करने, सूअरबाड़ों का प्रबंधन करने, सूरज की किरणों से पानी शुद्ध करने, मच्छरदानियों का इस्तेमाल करने और मुआवजा बांटने का मर्म, समझ आएगा? और सबसे बढ़कर, क्या सरकार, होलिया के बाद, एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन की, कोई योजना, लागू करेगी? ताकि, होलिया की तरह, एन्सेफलाईटिस प्रभावित, सभी इलाकों का, 'अँधेरा', दूर हो सके।
क्रमशः