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बुधवार, 6 जनवरी 2010

दोस्त-दोस्त ना रहा

अजय कुमार सिंह

दोस्ती निभाने के मामले में मुलायम सिंह यादव का रिकॉर्ड बहुत खराब हो गया है। वैसे कुछ लोगों को ये भी लगने लगा है कि कभी खुद को धरतीपुत्र और समाजवादी कहने वाले मुलायम की, एन.टी.रामाराव जैसी गति हो सकती है। लेकिन दिक्कत यह है कि तेलगुदेशम पार्टी की तरह समाजवादी पार्टी में अभी तक कोई चन्द्रबाबू नायडू नहीं उभरा है, जो पार्टी को संभाल सके। बहरहाल, मुलायम का जो भी होगा उसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार भी वही होंगे। अभी तो हम उन्हें अमर सिंह द्वारा ताज़ा-ताज़ा दिए गए जख्मों पर लगाने के लिए सिर्फ जुबानी मरहम ही दे सकते हैं। वैसे यह देखना भी जरुरी है कि सालों से चली आ रही इस दोस्ती की टूटन में ज्यादा जख्म, मुलायम को मिलें हैं या अमर को। अमर, लम्बे अरसे से पार्टी में सिर्फ मुलायम के भरोसे थे। घोर परिवारवादी मुलायम- रामगोपाल, अखिलेश, शिवपाल और धर्मेन्द्र से उनकी रछा करते भी तो कब तक। यह ठीक है कि अमर, सपा के फंड मैनेज़र रहे हैं लेकिन लम्बे समय तक 'फटहा' पहन कर, पोलिटिक्स करने वाले समाजवादियों को 'फंडिंग' का महत्त्व समझाकर मुलायम, आखिर कब तक चुप कराते। फिरोजाबाद में मुलायम की पतोहू डिम्पल हारी तो सबकी आँखों में 'अमर' शूल की तरह चुभने लगे। सबको लगा कि राजबब्बर ने अमर से नाराज़ होकर पार्टी ना छोड़ी होती तो आज यह दिन ना देखना पड़ता। फिरोजाबाद की हार के पहले आम लोकसभा चुनाव में भी मुलायम हार का सामना कर चुके थे। इत्तेफाक से तब आज़म खान ने भी पार्टी छोड़ते वक्त अमर को ही निशाना बनाया था। कल्याण सिंह सपा में आकर फेल हुए तो उन्हें सपा में लाने का ठीकरा भी अमर के सिर ही फोड़ा गया। दरअसल कई सालों से अमर को लगने लगा था कि सपा में अच्छी बातों का श्रेय तो उन्हें मिलता नहीं लेकिन हर बुरी चीज़ का ठीकरा उन्हीं पर फोड़ा जाता है। अमर सिंह-'अमिताभ, संजय दत्त, जया प्रदा, अनिल अम्बानी, जया बच्चन से लगायत क्लिंटन और हिलेरी तक को पार्टीहित में साध लें, तो कोई चर्चा नहीं होती।' उल्टे मोहन सिंह, रेवती रमण सिंह, जनेश्वर मिश्र और रामगोपाल यादव जैसे पढ़े-लिखे नेता, उनका मज़ाक ही उड़ाते हैं। मोहन सिंह ने हाल ही में वाराणसी में बोलते हुए कहा कि ,''अब ये दिन आ गया है कि उनके जैसे समाजवादी को चुनाव लड़ने के लिए अमर सिंह 'जैसों से' पैसा लेना पड़ता है।'' जबाब में अमर ने कहा था कि "तो क्या अगले चुनाव में मोहन सिंह को सिर्फ समाजवाद पर कुछ किताबें भिजवा दूं! मोहन सिंह को अगर यही कहना था तो फिर उन्होंने रूपया लिया ही क्यों?"

कुछ दिन पहले ही जब अमर ने एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में पार्टी हाईकमान के अतिआत्मविश्वास को फिरोजाबाद की हार के लिए जिम्मेदार ठहराया तो रामगोपाल यादव ने उन्हें उनकी हैसियत बताने में जरा भी देर नहीं लगाई थी। अमर, अगर मुलायम की कमजोरी ना होते तो शायद तभी उनके रास्ते अलग हो गए होते। मुलायम अपने पूरे कुनबे के साथ अमर को मनाने ना पहुंचे होते। लेकिन उसके बाद अभी एक-दो दिन पहले ही फिर रामगोपाल ने अमर को एक ऐसी चिठ्ठी लिखी जिसमे मुलायम और जनेश्वर को पार्टी का नेता और बाकी सब (अमर सहित) को सहयोगी बताया गया था। जो पार्टी, दशकों से संघर्ष का रास्ता भूलकर सिर्फ अमर सिंह के फंड और उनकी बदौलत वाली वालीवुड के ग्लैमर पर चल रही हो वहां अमर, भला इतनी बेईज्ज़ती, सहते भी तो कैसे? वैसे अमर और समाजवादी पार्टी की टूटन से घाटा या मुनाफा, अगले चुनावों में, समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन से, मापा जायेगा। अगर सपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो माना जायेगा की अमर की वजह से उसकी तेज़स्विता धूमिल हो रही थी. वरना माना जायेगा कि अमर ने वक्त रहते सही राह चुन ली। वैसे इतना तो तय है कि अमर की नज़रों में अब सपा का कोई भविष्य नहीं बचा है। अमर को लगने लगा था कि वे पार्टी पर जितना लगाते या लगवाते हैं पार्टी उतना रिकवर नहीं कर पा रही है. और ना ही आगे करने की कोई उम्मीद है। यूपी में माया के बाद लगता है मुलायम की जगह कांग्रेस लेने लगी है। दिल्ली में अमर ना हों तो सपाइयों को भला कौन पूछेगा। अमर सिंह फिलहाल बीमार हैं। लेकिन इतने भी नहीं कि अपना फायदा भूल जाएँ। इस्तीफ़ा देने के पहले उन्होंने कम से कम सौ बार सोचा होगा। निश्चित ही हर बार उन्हें पार्टी से दूरी, पार्टी की नजदीकी से, ज्यादा फायदेमंद लगी होगी। तभी उन्होंने इस्तीफ़ा दिया है। लेकिन अरब टके का सवाल ये है कि इस्तीफ़ा देने के बाद खाली वक्त में अमर क्या करेंगे। बच्चों का होमवर्क कराएँगे? बच्चन परिवार की स्थाई सदस्यता के नाते ऐश्वर्या की गोद जल्दी भरने की दुवाएं मांगेंगे? टीना-अनिल अम्बानी को मंदिरों के दर्शन कराएँगे? या फिर अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में नई नौकरी तलाशेंगे!

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