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मंगलवार, 24 नवंबर 2009

बकवासम रिपोर्ट!

लिब्रहान आयोग की जिस रिपोर्ट पर पिछले दो दिन से संसद और मीडिया का बेशकीमती समय लुटाया जा रहा है असल में उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। वैसे भी तीन महीने के बजाये १७ साल में सरकार का काफी रुपया बहाकर तैयार की गई इस रिपोर्ट में वही सब है जो देश के बच्चे-बच्चे को पहले से मालूम है। हाँ...रिपोर्ट में कुछ ऐसी बातें (मसलन पी.वी.नरसिम्हा राव की सरकार को क्लीनचिट और अटल बिहारी बाजपेई का नाम ) भी हैं जो इसकी गंभीरता को और कम कर देती हैं। अच्छा होता कि अगर इंडियन एक्सप्रेस ने इस रिपोर्ट को लीक नहीं किया होता तो संसद में पछ-विपछ को इसपर टाइमपास करने का मौका न मिलता। बेवजह जनता के धन का इतना 'और' दुरूपयोग न होता। अच्छा एक बात बताइए दिल से.....क्या आपको लगता है की इस रिपोर्ट में दोषी ठहराए गए एक भी नेता या अधिकारी के खिलाफ इस जनम में कोई कार्यवाही होगी? अगर अटल बिहारी बाजपेई ख़ुद आज कल्याण सिंह की तरह ताल ठोंकते हुए कबूल कर लें कि वे दोषी हैं तो भारत की कौन सी जेल उनको इस मुकाम पर अपना कैदी बना पायेगी। क्या कल्याण सिंह, बाल ठाकरे, अशोक सिंघल या उमा भारती जैसों को पकड़कर कोई सरकार भारतीय दंड संहिता की सम्बंधित धाराएँ कभी तामील करा पायेगी। क्या पीवी नरसिम्हा राव की आत्मा ये बताने आयगी कि उनकी इस मामले में क्या भूमिका थी। कोई आख़िर क्या करेगा इस रिपोर्ट का। आख़िर किसे बेवकूफ बना रहे हैं ये नेता। टीवी चेनलों पर एंकरों के चिल्लाने से क्या देश का उद्धार हो जाएगा। क्या फर्क पड़ेगा। क्या मस्जिद वापस आ जायगी या फ़िर देश का संप्रदायिक सदभाव कुछ बढ़ जाएगा। क्या.... होगा क्या ? इस बेमतलब की बहस से। संसद में रिपोर्ट पेश हुई तो सुरेन्द्र अहलूवालिया ने जयश्रीराम का उद्दघोष किया। अमर सिंह 'या अली' बोलते हुए उन्हें मारने को दौड़े। फ़िर दोनों ने बताया कि वे तो कलकत्ता में एक साथ बिताये कॉलेज के दिनों की याद ताज़ी कर रहे थे। हम-आप फिजूल में ही दांतों तले उंगली दबाये ये सारा नाटक देखते रहे। बस हो गया घर पर केबल लगवाने का पैसा वसूल।
बकवास, बकवास और महज बकवास है ये सब। आम आदमी के जीवन की तकलीफ़ो में इससे कोई कमी नहीं आने वाली। फ़िर भी पता नहीं कैसे हैं हम? जो अपने प्रतिनिधियों को एक बार संसद में भेजकर भूल ही जाते हैं। रोज़ शाम थैला लेकर बाजार पहुँचते ही आसमान छूती महंगाई कमर कमजोर कर देती है लेकिन याद नहीं आता कि हमारे प्रतिनिधियों को इस मुद्दे पर संसद में सरकार का जीना हराम कर देना चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान इस मामले में फ़िर भी जागरूक हैं। संसद सत्र शुरू होने के पहले ही दिन अपने नेता अजित सिंह, मुलायम सिंह और इलाके के सारे सांसदों को मजबूर कर दिया संसद में हंगामा मचाने को। दिल्ली की सडकों पर किसानो ने कमान ख़ुद संभाली। दो दिन संसद ठप्प रही और तीसरे दिन सरकार ने उनकी मांग मान ली। लोकतंत्र में दरअसल ऐसे निकला जाता है अपनी समस्याओं का हल। गन्ना किसान पिछले कई महीनो से लड़ रहे थे। उनके नेताओं को मालूम है कि उनकी वाली नहीं हुई तो इलाके में मुंह दिखाना मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन महंगाई सहित कई समस्याओं से परेशान आम आदमी की तो कोई जमात है ही नहीं ना। बस अपने-अपने घरों में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ बढती महंगाई पर आंसू बहा सकते हैं। १०१ रुपए किलो अरहर की दाल, ३० रूपया किलो प्याज और ३० रुपये किलो मसूरी चावल हो गया । हर चीज के दाम आसमान छू रहे हैं। निम्न मध्य वेर्गीय और गरीब आदमी की खुराक कम हो गई है। मंदी के नाम पर देश भर में लाखों नये बेरोजगार पैदा हो गये हैं जिन्हें मंदी ख़त्म होने के बाद भी नौकरी नहीं मिली है। कहाँ जायेंगे ये सब और इनके बाल-बच्चे । किसी को परवाह है! संसद में लिब्रहम रिपोर्ट पेश होते ही लखनऊ में बेशर्म कल्याण सिंह कुरता झाड़कर कैमरों के सामने खड़े हो गये। लगे चिंघाड़ने, '' मुझे मस्जिद गिरने का कोई अफ़सोस नहीं।" याद कीजिये कुछ महीने पहले ही मुलायम से दोस्ती करके यही कल्याण मस्जिद मामले में सफाई देते घूम रहे थे। अभी ना घर के हैं ना घाट के। सो बीजेपी की तरफ़ आशा भरा एक पैगाम पहुँचाने का इतना बेहतर मौका भला क्यों गंवाते ।

ये रिपोर्ट इंडियन एक्सप्रेस में लीक कैसे हुई इसको भी मुद्दा बनाया गया। गृहमंत्री पी.चिदम्बरम कहते हैं उनके मंत्रालय ने ये काम नहीं किया। जस्टिस लिब्रहान कहते हैं कि वे इतना नीच काम कर ही नहीं सकते। अरे छोड़ दीजिये साहब! पता नहीं ये काम नीच है या उंच। और हम अगर जान भी जायें कि किन महाशय ने ये कारनामा कर दिखाया तो भला क्या कर लेंगे और सबसे बढ़कर कि आख़िर हम कुछ क्यों करें। रिपोर्ट अखबार में छपे या संसद में रखी जाए हमारी बला से। क्या फर्क पड़ने वाला है। ये नेता और मीडियावाले आख़िर फालतू बातों पर इतना क्यों चिल्लाते हैं। कहीं इसके पीछे भी कोई सोची-समझी चाल तो नहीं। ठीक समझा आपने....ये सब मिलकर जनता की मौलिक समस्याओं को दबाने की चाल चल रहे हैं.यकीन मानिये इनकी चली तो संसद में एक दिन भी जनता से जुड़े सार्थक मुद्दों पर कोई बात नहीं होगी। लोकसभा टीवी के बायोस्कोप पर हमे कभी चीन की रार, कभी पाकिस्तान को ललकार, कभी सिख दंगों की रिपोर्ट, कभी गुजरात दंगों की तो कभी अयोध्या ध्वंश की रिपोर्ट्स देखने को मिलेंगी। कभी प्रधानमंत्री मनमोहन , राष्ट्रपति ओबामा के मेहमान बनकर दबी जुबान चीन की शिकायत से हमे खुश करेंगे तो कभी राहुल सिर पर गारे-माटी की कराही उठाकर जता देंगे कि भावी प्रधानमंत्री बनने के लिए वे किस हद तक मेहनत कर सकते हैं। लेकिन उनमें से कोई लाख नाटक करे, कुछ भी कहे, देश के आम आदमी के लिए असल में कुछ नहीं करने वाला। दरअसल, आम आदमी उनका एजंडा ही नहीं है।


डाक्टर आर.एन.सिंह की कलम से..........

ोजपुरी में बड़ी पुरानी कहावत है 'जाके पैर ना फटे बवाई ते का जाने पीर पराई '। मुख्यमंत्री मायावती बुंदेलखंड और हरित प्रदेश के साथ भोजपुरी भाषी इलाके को अलग कर पूर्वांचल बनाने का समर्थन तो करती हैं लेकिन भोजपुरी की इस पुरानी कहावत का मर्म नहीं समझतीं। शायद इसीलिए उन्होंने पूर्वांचल में पिछले ३१ सालों के दौरान ५० हज़ार से ज्यादा मौतों का सबब बनी बीमारी एन्सेफ्लाईटिस पर शोध के लिए यहाँ नहीं बल्कि लखनऊ के सुपर हॉस्पिटल संजय गाँधी स्नातकोत्तर आर्युविज्ञानं संस्थान में जगह चुनी है। सब जानते हैं की एन्सेफ्लाईटिस के पंचानबे से सनतानबे प्रतिशत मरीज़ गोरखपुर और उससे लगे छः जिलों से आते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के बेलगाम बाबुओं को ये भला कौन समझाएगा? जरा सोचिए कि सेण्टर ऑफ़ एक्सीलेंस फॉर जेई के लिए गोरखपुर के बजाये पीजीआई को चुनने के पीछे राज्य सरकार की क्या मंशा रही होगी। मैं कम से कम सौ वजहें गिना सकता हूँ जिनके चलते इस सेण्टर को पीजीआई में नहीं गोरखपुर में होना चाहिए। पहली वजह तो ये है की गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इस बीमारी के कम से कम सौ-डेढ़ सौ मरीज़ हर वक्त भर्ती रहते हैं। जबकि पीजीआई में इक्का-दुक्का मरीज़ ही आते हैं। पीजीआई में जब मरीज़ ही नहीं हैं तो वायरस पर दवाओं का असर कैसे जांचा जा सकता है। ये काम गोरखपुर में आसानी से सम्भव है। एन्सेफलाईटिस के वायरस में कोई खास जेनेटिकम्यूटेशन की पड़ताल करने के लिए भी पीजीआई को गोरखपुर और आस-पास से ही सेम्पल मांगना पड़ेगा । नतीजतन हालत वैसे ही रहेंगे जैसे पिछले चार साल से हैं। चार साल से ये सेम्पल एन.आई.वी पूना भेजे जाते थे। वहां से महीनो बाद जब तक रिपोर्ट आती थी तब तक मरीज़ का जो भी होना हो, हो चुका होता था। २७ सितम्बर २००६ को इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने भी गोरखपुर में अन्तररास्ट्रीय स्तर का शोध केन्द्र बनाए जाने का निर्देश दिया था। इसके अलावा, समय-परिस्थिति और लोगों का रहन-सहन , शोध के लिए सभी चीजों पर ध्यान देना होता है। सीधी सी बात है जहाँ बीमारी होगी शोध तो वहीँ हो पायेगा। जो शोध गोरखपुर में हो सकता है वो लखनऊ में हो ही नहीं सकता। चलिए सब कुछ छोड़ दीजिये, यदि लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोपरि है तो भी माननीय उच्च न्यायलय इलाहाबाद के आदेश (२७ सितम्बर,२००६) की मंशा को सही रूप में लें तब भी सेण्टर गोरखपुर में ही होना चाहिए।


क्या होगा सेण्टर गोरखपुर में बन जाने से:


सुना करते थे कि लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं । यहाँ तो हालात और खराब हैं। लड़ने को लड़ भी रहे हैं और दुश्मन की पहचान ही नहीं हो पाई । फ़िर कैसे होगी फतह। सरकारी बयानों को सच माने तो पहले जेई फ़िर वीई और अब ऐईएस हो गई बीमारी। भले ही परमाडू करार से लेकर चाँद पर घर बनाने में हम सफल हो गये हैं किंतु ३१ साल की इस बीमारी के सही कारक को चिन्हित करने में आज की तारीख तक हम पूरी तरह से नाकाम हैं। इसीलिए उच्च न्यायलय के आदेशानुसार अंतररास्ट्रीय स्तर का एक शोध केन्द्र तत्काल गोरखपुर में बनाया जाना चाहिए। जिससे सही कारक वायरस की पहचान हो सके और जंग-ऐ-एन्सेफलाईटिस को एक अंजाम दिया जा सके। ऐसे तो हम मौतें ही गिनते रह जायेंगे।


गोरखपुर में सेण्टर ऑफ़ एक्सेलेंस फॉर जेई बनाये जाने की मांग को लेकर सांसदों से आवेदन किया जा रहा है कि वे इस मुद्दे को सदन में उठायें और अविलम्ब सेण्टर को गोरखपुर में स्थानांतरित कराएँ। जिन सांसदों को यह आवेदन किया जा रहा है उनमे योगी आदित्यनाथ, आर.पी.एन सिंह, जगदंबिका पाल, हर्षवेर्धन सिंह, कमल शामिल हैं। साथ ही जिन लोगों ने पूर्व में एन्सेफलाईटिस के प्रति संवेदना दिखाई है उनसे भी आवेदन किया जा रहा है जैसे राहुल गाँधी और राजबब्बर। २००६-२००८ में इन लोगों ने काफी संवेदना दिखाई थी।


एक बात और ! एन्सेफलाईटिस से मौतों का सिलसिला लगातार जारी है। अकेले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में साल २००५ में इस बीमारी के ४७५२ मरीज़ आए जिनमे से ११३५ की मौत हो गई। २००६ में २०२९ आए ४३७ मर गये। २००७ में २७२९ आए ५४७ मर गये। २००८ में दो हज़ार आए ४५० मर गये। इस साल जनवरी से अब तक २५०९ मरीज़ आए जिनमे से ४८४ की मौत हो चुकी है। मरीजों का आना और मर जाना लगातार जारी है। कोई है जो इन्हें बचाएगा ?


(लेखक एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन अभियान के चीफ काम्पेनर और प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ हैं )



सोमवार, 23 नवंबर 2009

एक शाम मासूमों के नाम

32 साल से पूर्वांचल के मासूमों पर मौत बनकर बरस रही बीमारी एन्सेफ्लाईटिस के खिलाफ मुहिम अब कामयाब होने लगी है। सरकार ने जापानीज एन्सेफ्लाईटिस के टीके की दूसरी खुराक लगाने के कार्यक्रम को मंजूरी दे दी है। पिछले दिनों इस कार्यक्रम की घोषणा गोरखपुर के सीएम्ओ ने की। गौरतलब है कि पिछले कई सालों से एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन अभियान के चीफ कम्पेनेर डाक्टर आर.एन.सिंह टीके की दूसरी खुराक लगवाने की मांग कर रहे थे। डाक्टर सिंह के मुताबिक टीके की कम से कम दो खुराक ही कारगर होती है। ख़ुद टीका बनानने वाली कम्पनी ने भी टीके के रेपर पर इसकी कम से कम तीन खुराक लगवाने की ताकीद कर रखी है। लेकिन ना जाने क्यों सरकार इस टीके की एक खुराक को ही पर्याप्त मानकर चल रही थी। सरकार की इस अनदेखी के चलते पूर्वांचल में ऐसे बच्चे भी एन्सेफ्लाईटिस के शिकार होते रहे जिन्हें टीका लगाया जा चुका था। डाक्टर आर.एन.सिंह कहते हैं कि सरकार ने टीके की दो खुराक भी दिलवा दी होती तो इस तरह आधे-अधूरे नतीजे नहीं आते।
इस बीच बाल दिवस की पूर्व संध्या पर गोरखपुर में सूरजकुंड सरोवर सेकड़ों लोगों ने एन्सेफ्लाईटिस से इस साल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में मरे बच्चों की याद में दीप जले। लोगों ने दीप से नीप (नेशनल एन्सेफ्लाईटिस एरेदिकेशन प्रोग्राम) लिखकर इसे लागू करने की मांग की। इस कार्यक्रम की अगुवाई एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन अभियान की संयोजक डाक्टर वीणा और श्रीमती स्नेह ने की। कार्यक्रम में संरछ्क के तौर पर मौजूद डाक्टर आर.एन.सिंह ने कहा कि इन दीपों की टिमटिमाती 'लो' ठीक उसी तरह है जैसे एन्सेफ्लाईटिस से बीमार बिस्तर पर पड़े किसी मासूम की सांसें जिंदगी और मौत के बीच अटकीं होती हैं। हमें इस 'लो' के बुझने से पहले सरकार को नीप लागू करने के लिए हर हाल में मजबूर करने की शपथ लेनी है ताकि मासूमों का जीवन टूटती सांसों का मोहताज़ न रहे।
छपाक संवाददाता, गोरखपुर, १३ नवम्बर २००९

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

अकेली ना रिपोर्टिंग पर जाया करो

दिल्ली में ट्रेड फेअर की रिपोर्टिंग करने गई एनडीटीवी की रिपोर्टर अंजली को किसी मनचले ने छेड़ दिया। अब मनचला तो मनचला ठहरा उसे क्या पता कि अनजाने में वो जिससे टकरा रहा है वो कोई मामूली लड़की नहीं देश के प्रमुख टीवी चैनल की रिपोर्टर है। फ़िर क्या था इस मामले में जो होना था वही हुआ। अंजली ने मनचले का गिरेबान पकड़ा और जमकर दिए हाथ दो हाथ। अंजली ट्रेड फेअर में जाते वक्त सोच रही थी कि खबर क्या बनेगी। मनचले ने ख़ुद शामत मोल लेकर अंजली को एक ख़बर भी मुहैया करा दी। इस घटना के आधार पर एनडीटीवी ने सवाल उठाया कि ट्रेड फेअर और दिल्ली में लड़कियों की सुरछा के इंतजाम क्या हैं। ये ख़बर निश्चित रूप से उस नॉर्मल खबर से ज्यादा देखी गयी जो अंजली ट्रेड फेअर पर बनातीं। लेकिन इस हादसे के बाद एनडीटीवी में कुछ लोगों ने अंजली को सलाह भी दी है कि आगे से वो अकेली ना रिपोर्टिंग पर जाया करें।
छपाक रिपोर्टर, नई दिल्ली

ठाकरे कौन?

शुक्रवार को मुंबई में आईबीएन-लोकमत के दफ्तर पर हमले के तुरंत बाद महारास्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाद ने सख्त कार्यवाही का आश्वासन दिया तो लगा लंबे अरसे से पुंसकों जैसा ब्यवहार कर रही महारास्ट्र सरकार की गैरत जाग गयी है। लेकिन थोड़ी ही देर में जाँच के लिए कमेटी बनाने की बात कहकर मुख्यमंत्री ने बता दिया की उनके पैजामे के नीचे कुछ नहीं है। बहरहाल काबिले तारीफ हैं लोकमत के वे पत्रकार जिन्होंने ठाकरे के सात गुंडों को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। देखें कि सामना के संपादक संजय राउत सिर्फ़ अपने दफ्तर में बैठकर ठाकरे के शत्रुओं को सबक सिखाने का बयान देते रहते हैं या फ़िर अपने पालतुओं की जमानत कराने थाने तक भी पहुँचते हैं। आईबीएन ७ - लोकमत को इस हमले से कोई नुकसान होने के बजाय फायदा ही हुआ है। मंदबुद्धि ठाकरे को भला क्या पता कि ऐसे हमलों से अब झोपड़पट्टी वाले भी नहीं घबराते। मीडिया वालों को तो उलटे फायदा ही होता है। इस हफ्ते की टैम रिपोर्ट आने दीजिये। पता चल जायगा कि शुक्रवार की शाम आईबीएन-लोकमत की टीआरपी कितनी बढ़ी।
कुछ दिन पहले ही राज ठाकरे के विधायकों ने विधानसभा में अबू आजमी से हाथापाई की थी। आजमी को भी इससे फायदा ही हुआ था। लेकिन सवाल उठता है कि महारास्ट्र की राजनीती में कभी गंभीरता से नहीं लिए गये चाचा-भतीजा अचानक पागल क्यों हो गये हैं। 'मातुश्री' नाम के एक मकान में जिन्द्गगी के आखिरी पड़ाव पर आराम से दिन गुजार रहे बाल ठाकरे को रिटायरमेंट के बाद फ़िर से काम पर लौटना पड़ा है। जाहिर है बाल ठाकरे को समझ आ गया है कि शिवसेना की दुकान बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपना, उनकी गलती थी। नालायक उद्धव ने दुकान को बंदी के कगार पर पहुँचा दिया है। शिवसेना जैसी पुरानी दुकान से अच्छी तो राज ठाकरे की नई दुकान एम्एनएस चल पड़ी है। बेचारे बाल ठाकरे को बुढौती में दुकान पर बैठना पड़ रहा है। बहुत छोटी उमर से कम-धंधे में लग गये बाल ठाकरे को शायद पढ़ने का ज्यादा मौका नहीं मिला। उनका हिन्दी ज्ञान तो बिल्कुल ही सीमित है। इसीलिए हिन्दी की एक पुरानी कहावत 'पूत कपूत तो का धन संचय.........' उन्होंने नहीं। अन्यथा उद्धव के लिए अपना बुढ़ापा यों ख़राब नहीं करते।
कोई भी बता सकता है मराठी मानुस के नाम पर चल रही इस बकवास राजनीती में 'कुत्ता' प्रेमी राज ठाकरे (विधानसभा में अबू आजमी पर हमले वाले दिन राज ठाकरे की गोद में एक कुत्ता इठलाते देखा गया था) अपने चाचा बाल ठाकरे से काफी आगे निकल गये हैं। शुक्रवार को लोकमत के दफ्तर पर शिवसेना का ये हमला दरअसल 'बड़ा ठाकरे' कौन है यही साबित करने के लिए हुआ है। हाल में संपन्न हुए महारास्ट्र विधानसभा के चुनाव में करारी हार के बाद से ही बाल ठाकरे, राज ठाकरे को पछाड़ने लिए मचल रहे थे। दो दि पहले ही बाल ठाकरे ने सचिन तेंदुलकर को मराठी से पहले ख़ुद को हिन्दुस्तानी कहने पर 'चाहेंट' लिया था। बाल ठाकरे ने जिस बात के लिए सचिन तेंदुलकर की निंदा की वो या तो जिन्ना मानसिकता का कोई ब्यक्ति ही कर सकता है या फ़िर कोई पागल।
ठाकरे के मुंह से निकलती ऐसी बकवास और उनके पालतुओं की ऐसी हरकत से साफ है महारास्ट्र की राजनीती में ठाकरे की कोई ओकात नहीं बची है। वोटर इनको पूछ नहीं रहा। चुनाव ये जीत नहीं पा रहे। अब ये तो सिर्फ़ सरकार की नपुंसकता है जो ये कभी सडकों पर ठेले-खोमचे-ऑटो वालों पर ताकत आजमाते हैं, कभी अमिताभ बच्चन के घर के सामने बोतलें फेंकते हैं, कभी रेलवे भर्ती परीछा में गये बच्चों को पीटते हैं, कभी विधानसभा में अबू आजमी से लड़ते हैं तो कभी लोकमत के दफ्तर पर हमला करते हैं।
ये भी साफ है कि ठाकरे पर लगाम कसने के लिए जनता और मीडिया द्वारा सरकार को दी जा रही 'शक्ति जागरण' ओसधियों का कोई असर क्यों नहीं पड़ रहा है। दरअसल सरकार और कांग्रेस को फिलहाल शिखंडी बने रहने में ही फायदा नज़र आ रहा है। 'जिन्हें' रोजगार के लिए सरकार के बाल नोचने चाहिए, बाल और राज ठाकरे ने उन्हें रोजगार दे रखा है। साथ ही मीडिया का पूरा ध्यान बेमतलब चाचा-भतीजा पर लगा है। सरकार को उसकी नाकामियों और जनता के असल सवालों पर घेरने वाला कोई है ही नहीं।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

चाचा नेहरू सा दिल चाहिए

गोरखपुर में इस बार चाचा नेहरू का जन्मदिन एन्सेफ्लाईटिस से मारे गये बच्चों को श्रधान्जली दिवस के रूप में मनाया जाएगा। यहाँ मरे की जगह 'मारे गये' शब्द का उल्लेख सोच समझ कर इसलिए किया है क्योंकि इन बच्चों को बचाया जा सकता था। जैसा कि हम सब जानते हैं कि चाचा नेहरू को बच्चों से बहुत प्यार था। केवल भारत के नहीं दुनिया भर के बच्चे उनके चहेते थे। आजादी के दो साल बाद टोकियो शहर के बच्चों ने चाचा नेहरू को चिठियाँ लिखकर भारतीय हाथी देखने की इच्छा जाहिर की। सितम्बर १९४९ में नेहरू जी ने उन्हें तोहफे के रूप में एक हाथी भेज दिया। उस हाथी का नाम 'इंदिरा' रखा गया था. २४ सितम्बर १९४९ को जब ये हाथी टोकियो के चिडियाघर पहुँची तो उसके स्वागत के लिए हजारों बच्चे मौजूद थे। बच्चों की खुशी देखते ही बनती थी। हाथी भेजने के बाद ३ दिसम्बर १९४९ को पंडित नेहरू ने जापानी बच्चों के नाम एक पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने जापान के बच्चों को भारत और दुनिया के बारे में वैसे ही बातें बताईं जैसी वे अक्सर अपनी प्यारी बेटी इंदिरा को बताया करते थे। जाहिर है पंडित नेहरू का दिल इतना बड़ा था कि उसमें दुनिया भर के बच्चे समां सकते थे। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के नेहरू चिकित्सालय में लगी नेहरू जी की तस्वीर देखकर जाने क्यों ख्याल आता है कि काश! नेहरू जी होते तो यहाँ इन मासूमों को जान ना गंवानी पड़ती। १४ नवम्बर को नेहरू जी का जन्मदिन पूरे देश में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस बार गोरखपुर में इसे बच्चे बचाव दिवस के रूप में मनाया जाएगा। एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन अभियान की समन्वयक डॉक्टर वीणा सिंह ने बताया कि बाल दिवस की पूर्व संध्या पर पवित्र सूरजकुंड सरोवर में इस साल एन्सेफ्लाईटिस से मरे हर बच्चे की याद में एक दीया जलाया जाएगा। चीफ कम्पेनर आर.एन.सिंह दीये की टिमटिमाहट को एन्सेफ्लाईटिस के बिस्तर पर पड़े बच्चों की डगमगाती जिन्दगी से जोड़ते हैं। डॉक्टर सिंह के मुताबिक इस दीपांजली के जरिये नेहरू जी की पवित्र आत्मा को पुकारा जाएगा। अब शायद वही अपने वारिसों की केन्द्र सरकार को बच्चों के प्रति संवेदनशीलता का पाठ पढा सके।

श्रेष्ठिजनो का ड्रामा!

महारास्ट्र विधानसभा में कांग्रेस विधायक अमीन पटेल ने हिन्दी में और बाबा सिद्दीकी ने अंग्रेजी में शपथ ली। फ़िर मराठी में शपथ नहीं लेने पर अकेले अबू आजमी क्यों पीटे गये। आजमी आख़िर क्यों गड़ रहे हैं राज ठाकरे की आंखों में। क्या राज का मकसद सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना है या फ़िर वे इसके आगे की कोई सोची-समझी रडनीति पर काम कर रहे हैं। बीच में से मांग फाड़कर बाल बनने वाले इस 'नौसिखिये' राज में आख़िर क्या है जो वो अपने घाघ चाचा पर भारी पड़ने लगा है। अबू आजमी की पिटाई की खबरों के साथ ९ नवम्बर की रात टेलीविजन पर गोद में कुत्ता लिए हुए राज की तस्वीरें दिखाई जा रही थीं। राज जिस तरह की राजनीती कर रहे हैं 'कुत्ता' उसका प्रतीक हो सकता है। नवनिर्वाचित विधायकों के शपथ ग्रहण समारोह के तीन दिन पहले राज ने मीडिया के सामने बोला था कि किसी विधायक ने गैर मराठी भाषा में शपथ लेने की कोशिश की तो एम्.एन.एस के १३ विधायक उसे देख लेंगे। अबू आजमी ने भी इसका जबाब देते हुए हिन्दी में ही शपथ लेने का इरादा जता दिया। तभी से मीडिया वालों को पूरा भरोसा था की शपथ ग्रहण समारोह में कोई न कोई हंगामेदार ख़बर जरूर मिलेगी। आश्चर्ये नहीं होना चाहिए कि ९ नवम्बर को विधानसभा में अबू आजमी की पिटाई के बाद लोकतंत्र के हिलने जैसे भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करने वाले मीडियाकर्मी पहले से जानते थे कि अबू आजमी पर राज का कहर बरपने वाला है। और जब मीडिया वाले जानते थे तो क्या महारास्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाद इतने भोले हैं कि उन्हें कुछ मालूम ही नहीं था। और तो और शायद अबू आजमी भी ये जानते थे कि विधानसभा में इस तरह की घटना हो सकती है। जाहिर है ९ नवम्बर २००९ को महारास्ट्र विधानसभा में जो कुछ हुआ उसकी जानकारी सत्ता पछ से लेकर विपछ और मीडिया तक को पहले से थी। सवाल उठता है कि फ़िर सबने मिलकर ९ नवम्बर को सारे हिंदुस्तान को 'श्रेष्ठीजनों का ड्रामा' देखने पर मजबूर क्यों किया। हिंदुस्तान पहले भी महीनो तक राज ठाकरे की नौटंकी वाली गुंडागर्दी का नज़ारा देख चुका है। राजनीती के आसमान में इस 'अंगुल' भर के शख्स की आख़िर इतनी बड़ी हैसियत क्यों हो गई है कि वो सारे हिंदुस्तान का ध्यान खींचने की ताकत पा गया है। महारास्ट्र में सरकार, पुलिस, विपछ और मीडिया सब राज की राजनीती के शिकार बन गये हैं या फ़िर सब मिलकर राज-राज खेलने लगे हैं? आख़िर बाल ठाकरे के बाद कोई तो चाहिए जो महारास्ट्र की जनता का ध्यान जनता के असल सवालों पर ना रहने दे। ऐसा शख्स सभी के लिए फायदेमंद हो सकता है। यही राजनीती कर बाल ठाकरे उमर भर कामयाब रहे अब राज उनकी जगह ले रहे हैं। कभी छेत्र वाद तो कभी संप्रदायिकता बाल और राज ठाकरे की राजनीती में कोई अन्तर नहीं। इसी तरह राज ठाकरे को लेकर मीडिया और ब्यवस्था का रवैया भी बिल्कुल वैसा ही है जैसा कभी बाल ठाकरे को लेकर था। जाहिर है कभी बाल ठाकरे महारास्ट्र की राजनीती में अपरिहार्ये थे, आज राज ठाकरे हैं। कांग्रेस, बीजेपी, सपा और बाकि पार्टियाँ भी अपनी-अपनी भूमिका तलाश रहे हैं। जैसे ९ नवम्बर को अबू आजमी ने अपनी भूमिका तलाशी। तय है...... महारास्ट्र में राज, राजनेताओं और मीडिया की नौटंकी अभी जारी रहेगी।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मधु कोडा ने नया क्या किया

झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा पर चार हज़ार करोड के घोटाले का आरोप लगा है। सीबीआई जाँच शुरू होते ही जैसा की हर बड़े आदमी के साथ होता है मधु की तबियत भी बिगड़ गई है। टेलीविजन के परदे पर मधु को स्ट्रेचर पर रखकर अस्पताल ले जाते देखना और उनके पिता को गुस्से के साथ बिलखता देखना किसी को अच्छा नही लग सकता। लेकिन भारत में सार्वजनिक जीवन का वरण कर लोकहित की शपथ लेने वालों की ऐसी तस्वीरें अक्सर दिख जाती हैं। नरसिम्हा राव, सुखराम, सीबू सोरेन, लालू यादव, मायावती जैसों की एक लम्बी फेहरिस्त है। ऐसे नेताओं ने बार-बार हमारी नज़रो के सामने अपना असली चेहरा उजागर किया है। हमसे इनके बारे में कुछ भी छुपा नहीं है। बहन जी तो साफ-साफ बताती भी हैं कि उनका जन्मदिन कई सालों से पार्टी के लिए सहयोग दिवस के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। बहन जी का तर्क है कि उनकी पार्टी गरीबों के चंदे से चलती है जबकि बाकी पार्टियाँ उद्द्योगपतियों से पैसा लेती हैं। अब बहन जी की पार्टी उद्द्योगपतियों से पैसा लेती है या नहीं ये तो जाँच का विषय है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं की भारत के ज्यादातर राजनीतिक दल बडे-बडे उद्दोगपतियों से करोड़ों में चंदा लेते रहे हैं। जाहिर है इस चंदे के बदले ये उद्दोगपति भी सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दलों से अपना मुनाफा जरूर वसूलते होंगे। अगर ये सच है तो फ़िर सोच लीजीये भारत में भ्रस्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं। हाल में उच्चतम न्यायलय के जस्टिस काटजू ने कहा की भारत में भ्रस्टाचार की समस्या का कोई इलाज नहीं। कुछ लोगों को याद होगा कि प्रधानमंत्री रहते इन्द्र कुमार गुजराल ब्यवस्था से इतने नाराज़ हुए कि एकबारगी धरने पर बैठने जा रहे थे। भारत में ब्यवस्था के बिगड़ने और भ्रस्टाचार के इतने बडे सबूत मिल चुके हैं की अब इस बारे में कुछ कहना-सुनना बाकी नहीं रहा। लेकिन सवाल ये है कि क्या भ्रस्टाचार हमारे लिए कोई मुद्दा है। क्या हम पर इस बात का कोई फर्क पड़ता है कि हमारे नेता और अधिकारी मिल कर हमें लूटने लगे हैं। प्रथम विश्व युद्घ के बाद जर्मनी की खस्ता हालत के अलावा भ्रस्टाचार एक बड़ा मुद्दा था जिसने हिटलर को जन्म दिया। हिटलर की हम चाहे जितनी आलोचना करें और उस कत्लेआम के लिए करनी भी चाहिए लेकिन सच ये है कि हिटलर ने ही उस दौर में जर्मनी को तबाही से उबारकर एक मजबूत अर्थब्यवस्था दी थी। भारत में अभी वैसे हालात नहीं लेकिन बढती महंगाई, मंदी और गरीबी के चलते हालात बेहतर भी नहीं कहे जा सकते। आज-नहीं तो कल हमें इस बारे में सोचना ही होगा। हम नहीं सोचेंगे तो कोई हिटलर हमें सोच्वायेगा। बेहतर होगा अगर हम ख़ुद ही इन मुद्दों पर सोचना शुरू करें और वोट देते वक्त इन्हें याद रखें। ताकि मधु कोडा जैसे तस्वीरें भारत में आम ना रहें।

कमी खलेगी प्रभाष जी की

पत्रकारिता की दुनिया में प्रभाष जोशी का नाम लंबे अरसे से बडे सम्मान से लिया जाता रहा है। जब भी इस छेत्र में कुछ नये सवाल उठ खड़े हुए प्रभाष जी ने बड़ी उदारता से नई पीढी को उनका उत्तर तलाशने में मदद की। प्रभाष जी के बारे में लिखने को बहुत कुछ है लेकिन आज इस मौके पर नही.......अभी तो बस इतना ही कि हम बेहद गमजदा हैं.

सोमवार, 2 नवंबर 2009

पहले एक दीया इनके लिए रौशन कर दूँ

छपाक के एक पाठक ने 'क्या सरकार झूठ बोलती है' शीर्षक वाली खबर पर प्रतिक्रिया में लिखा है कि छपाक पर एन्सेफ्लाईटिस के अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया जाना चाहिए। निसंदेह....छपाक पर अभी तक सबसे ज्यादा सामग्री एन्सेफ्लाईटिस से सम्बंधित ही रही है। मैं मानता हूँ कि जब हमने छपाक के जरिये ठहरे हुए पानी को सड़ने से बचाने का बीडा उठाया है तो सिर्फ़ एन्सेफलाईटिस नहीं अन्य समसामयिक मुद्दों पर भी हस्तछेप करना होगा। लिहाजा उस पाठक की बात को सर आंखों पर रखते हुए मैं वायदा करता हूँ कि छपाक का दायरा बहुत जल्द बढाया जाएगा।
लेकिन पूरी बिनम्रता के साथ मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि छपाक पूर्वांचल के हजारों बच्चों और बड़ों की मौत का सबब बनने वाली बीमारी एन्सेफ्लाईटिस को किसी भी कीमत पर बख्शने वाला नहीं है। छपाक इस बीमारी के समूल नाश के लिए प्रतिबद्ध है। छपाक के जरिये एन्सेफ्लाईटिस विरोधियों की गोलबंदी जारी रहेगी।
इस बीमारी को मामूली मत समझिये। पूरे ३२ बरस हो गये। पहले तो इसका एक चरित्र था, एक सीजन था। अब ना कोई चरित्र है ना कोई सीजन। बारहों मॉस कहर बरपाती रहती है। मुझे तो ताज्जुब इस बात का है की ३२ बरस में २८ बरस, समाज के किसी विशिष्ट वर्ग (मीडिया सहित ) ने उस ढंग से लग कर कुछ क्यों नहीं किया कि सरकार के बंद कानों तक बात सिर्फ़ पहुंचे नहीं बल्कि सरकार अगर तुंरत कुछ ना करे तो इतना शोर मचे कि उसके कान के परदे ही फटने लगें। तब देखते कि सरकार पूरी तरह बहरी होना पसंद करती है या फ़िर लोगों को बचाने के लिए आगे आती है। ताज्जुब है कि एन्सेफ्लाईटिस के आने के २८ बरस तक तो पूर्वांचल में किसी ने 'चूँ' तक नहीं की। सन १९७८ में जब पहली बार गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इसके मरीज़ आए तो लोगों ने इसे 'नौकी बीमारी' का नाम दे दिया जो गाँव-देहात में आज तक बदस्तूर कायम है। याद कीजिये....ये वही दौर था जब गोरखपुर, अपराध के अन्तरराष्ट्रिय मानचित्र पर शोहरत पा रहा था। इसी दौर में पूर्वांचल के रणबांकुरे छत्रिय-ब्रह्मण जातीय संवेदना में ओत-प्रोत हो गैंगवार को परवान चढा रहे थे। आज उस गैंगवार की कोख से उपजे कई बाहुबली 'माननीय' जनप्रतिनिधि बनकर विधायिका की शोभा बढा रहे हैं। पूर्वांचल की राजनीत और समाज पर इनकी गहरी छाप है। पूर्वांचल के चुनावों में जातीय और धार्मिक समीकरणों की महत्ता कोई भी विश्लेषक बता देगा। लेकिन इन दोनों समीकरणों की राजनीती करने वालों ने पिछले ३२ बरस में कभी भी एन्सेफ्लाईटिस से तिल-तिल कर मरते हजारों बच्चों और उनके गरीब-बदनसीब माँ-बाप का दर्द बाँटने की कोशिश कभी नहीं की। बात-बात पर खून बहाने वाले नेता भला खून चूसने वाले मच्छरों के खिलाफ होते भी तो कैसे। बल्कि इन दोनों खूनचूसवों के बीच ३२ सालों से एक प्रकार की दुरभिसंधि जैसी है। ना मच्छर इन्हें काटते हैं और ना ये मच्छरों को ख़त्म करने के लिए कुछ करते हैं।
अब बात मीडिया की। गौर करें तो २००५ में एन्सेफ्लाईटिस के महामारी की शक्ल लेने से पहले तक मीडिया की रिपोर्टिंग ज्यादातर रश्मी रही। २००५ में मीडिया ने गोरखपुर से लखनऊ और दिल्ली तक पहली बार अपनी ताकत का ठीक से एहसास कराया। इसका नतीजा भी निकला। तत्कालीन राज्यपाल टी.वी.राजेश्वर से लेकर राहुल गाँधी तक गोरखपुर पहुंचे। तब एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन की लड़ाई लड़ रहे डॉक्टर आर.एन.सिंह और उनके चिकित्सक कुनबे ने जोर-शोर से मांग उठाई। डॉक्टर के.पी.कुशवाहा और ऐ.के.राठी मुखर हुए। मीडिया के दबाव ने सरकार को चीन से टीकों का आयात करने पर मजबूर कर दिया। इस तरह पूर्वांचल में २८ सालों से मौत फैला रही बीमारी से निपटने की कोशिश पहली बार शुरू हुई। उसी समय एन्सेफ्लाईटिस से मरने और विकलांग होने वालों के लिए मुआवजे, सूअरबाड़ों को आबादी से दूर ले जाने और मच्छरों को मिटाने के लिए एरिअल फोगिंग की बात भी जोर-शोर से उठी। मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर आर.एन.सिंह ने राहुल गाँधी को एरिअल फोगिंग का महत्व समझाया। उन्होंने बताया-अगर एरिअल फोगिंग हो जाए तो बीमारी का प्रकोप तुंरत कम हो जाएगा। डॉक्टर सिंह की बात राहुल गाँधी की समझ में आई। उन्होंने लौटकर तुंरत हेलीकॉप्टर भेजा लेकिन 'कहीं उत्तर प्रदेश में राहुल की राजनीती चटक ना जाए' इस आशंका में घुली जा रही तत्कालिन मुलायम सरकार ने उक्त हेलीकॉप्टर को रायबरेली से उड़ने नहीं दिया। ठीक इसी तरह की सोच से पीड़ित मायावती सरकार ने भी सत्ता में आते ही मुलायम राज में शुरू किए गये मुआवजे को बंद कर दिया है।
जाहिर है, ३२ बरस से एन्सेफ्लाईटिस के तांडव को ख़त्म करने के बजाये यूपी की सियासी पार्टियाँ गन्दी सियासत का खेल खेल रही हैं। पूर्वांचल की भोली-भली शांतिप्रिय गरीब जनता को भेंड-बकरी समझ रखा है सियासी पार्टियों ने। हद दर्जे की संवेदनहीनता से ग्रसित हमारे नेताओं को गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के वार्ड नम्बर ६० में एक-एक बिस्तर पर पिछले ३२ सालों में मर चुके सवा-सवा- सौ बच्चों की लाश दिखाई नहीं पड़ती। उन्हें तो आज भी वहां एक-एक बिस्तर पर दो-दो, तीन-तीन बीमार बच्चे और उनके माँ-बाप की परेशानी से कोई वास्ता नहीं। ना कोई शर्म है, ना कोई समझ! ..... और जागरूकता का आलम ये है- आज भी जनता वोट देते वक्त अपने बच्चों की मौत का हिसाब मांगने के बजाये साड़ी-शराब पाकर खुश होती है।
ऐसे हालत में एक पत्रकार होने के नाते अगर एन्सेफ्लाईटिस पर ठीक से नहीं लिखूंगा तो क्या माँ सरस्वती मुझसे प्रसन्न रहेंगी। कोई भी व्यक्ति देश-काल की परिस्थितियों से मुहं नहीं छिपा सकता। महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने साम्प्रदायिकता से लड़ते-लड़ते अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था। तो क्या हम आज हमारे छेत्र की ज्वलंत समस्या एन्सेफ्लाईटिस के खिलाफ अपनी कलम भी नहीं चलाएंगे। बल्कि मैं तो समाज के सभी वर्गों से आह्वान करता हूँ की एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन के लिए जो कुछ कर सकते हैं, जरूर करें। जो कवि-कहानीकार हैं वे एन्सेफ्लाईटिस से उजाड़ दुनिया में अपनी कविताओं- कहानियों के पात्र ढूँढें। वकील सरकारी चुप्पी के खिलाफ अदालतों में जाएँ। डॉक्टर समर्पित होकर एन्सेफ्लाईटिस पीडितों का मुफ्त इलाज करें। सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर आर.एन.सिंह की तरह कुछ गांव चुनकर वहां एन्सेफलाईटिस उन्मूलन के पॉँच सूत्रों को लागू कराएँ। धनवान एन्सेफलाईटिस उन्मूलन के काम में धन से सहयोग करें। नौजवान उन नीप ग्रामो में अपना श्रम दें जहाँ एन्सेफ्लाईटिस ख़त्म करने के प्रयासों को अमली जमा पहनाया जा रहा है। बाहुबली 'माननीय विधायिकाओं में पुरजोर ढंग से एन्सेफलाईटिस उन्मूलन की मांग उठायें। पंडित और मौलवी एन्सेफ्लाईटिस से मुक्ति के लिए इश्वर की प्रार्थना करें। विद्यार्थी गांव-गांव में लोगों को एन्सेफ्लाईटिस से बचने के उपाय बताएं। .......और जो कुछ नहीं कर सकते वे कम से कम अपनी आँखें नम किए उन बच्चों को उठाने में मदद करें जिन्हें बीमार हालत में अस्पताल या फ़िर मौत के बाद शमशान ले जाते वक्त बदनसीब माँ-बाप के कंधे जबाब दे देते हैं।

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भारत मैं नक्सल समस्या का समाधान कैसे होगा

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