भोजपुरी में बड़ी पुरानी कहावत है 'जाके पैर ना फटे बवाई ते का जाने पीर पराई '। मुख्यमंत्री मायावती बुंदेलखंड और हरित प्रदेश के साथ भोजपुरी भाषी इलाके को अलग कर पूर्वांचल बनाने का समर्थन तो करती हैं लेकिन भोजपुरी की इस पुरानी कहावत का मर्म नहीं समझतीं। शायद इसीलिए उन्होंने पूर्वांचल में पिछले ३१ सालों के दौरान ५० हज़ार से ज्यादा मौतों का सबब बनी बीमारी एन्सेफ्लाईटिस पर शोध के लिए यहाँ नहीं बल्कि लखनऊ के सुपर हॉस्पिटल संजय गाँधी स्नातकोत्तर आर्युविज्ञानं संस्थान में जगह चुनी है। सब जानते हैं की एन्सेफ्लाईटिस के पंचानबे से सनतानबे प्रतिशत मरीज़ गोरखपुर और उससे लगे छः जिलों से आते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के बेलगाम बाबुओं को ये भला कौन समझाएगा? जरा सोचिए कि सेण्टर ऑफ़ एक्सीलेंस फॉर जेई के लिए गोरखपुर के बजाये पीजीआई को चुनने के पीछे राज्य सरकार की क्या मंशा रही होगी। मैं कम से कम सौ वजहें गिना सकता हूँ जिनके चलते इस सेण्टर को पीजीआई में नहीं गोरखपुर में होना चाहिए। पहली वजह तो ये है की गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इस बीमारी के कम से कम सौ-डेढ़ सौ मरीज़ हर वक्त भर्ती रहते हैं। जबकि पीजीआई में इक्का-दुक्का मरीज़ ही आते हैं। पीजीआई में जब मरीज़ ही नहीं हैं तो वायरस पर दवाओं का असर कैसे जांचा जा सकता है। ये काम गोरखपुर में आसानी से सम्भव है। एन्सेफलाईटिस के वायरस में कोई खास जेनेटिकम्यूटेशन की पड़ताल करने के लिए भी पीजीआई को गोरखपुर और आस-पास से ही सेम्पल मांगना पड़ेगा । नतीजतन हालत वैसे ही रहेंगे जैसे पिछले चार साल से हैं। चार साल से ये सेम्पल एन.आई.वी पूना भेजे जाते थे। वहां से महीनो बाद जब तक रिपोर्ट आती थी तब तक मरीज़ का जो भी होना हो, हो चुका होता था। २७ सितम्बर २००६ को इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने भी गोरखपुर में अन्तररास्ट्रीय स्तर का शोध केन्द्र बनाए जाने का निर्देश दिया था। इसके अलावा, समय-परिस्थिति और लोगों का रहन-सहन , शोध के लिए सभी चीजों पर ध्यान देना होता है। सीधी सी बात है जहाँ बीमारी होगी शोध तो वहीँ हो पायेगा। जो शोध गोरखपुर में हो सकता है वो लखनऊ में हो ही नहीं सकता। चलिए सब कुछ छोड़ दीजिये, यदि लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोपरि है तो भी माननीय उच्च न्यायलय इलाहाबाद के आदेश (२७ सितम्बर,२००६) की मंशा को सही रूप में लें तब भी सेण्टर गोरखपुर में ही होना चाहिए।
क्या होगा सेण्टर गोरखपुर में बन जाने से:
सुना करते थे कि लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं । यहाँ तो हालात और खराब हैं। लड़ने को लड़ भी रहे हैं और दुश्मन की पहचान ही नहीं हो पाई । फ़िर कैसे होगी फतह। सरकारी बयानों को सच माने तो पहले जेई फ़िर वीई और अब ऐईएस हो गई बीमारी। भले ही परमाडू करार से लेकर चाँद पर घर बनाने में हम सफल हो गये हैं किंतु ३१ साल की इस बीमारी के सही कारक को चिन्हित करने में आज की तारीख तक हम पूरी तरह से नाकाम हैं। इसीलिए उच्च न्यायलय के आदेशानुसार अंतररास्ट्रीय स्तर का एक शोध केन्द्र तत्काल गोरखपुर में बनाया जाना चाहिए। जिससे सही कारक वायरस की पहचान हो सके और जंग-ऐ-एन्सेफलाईटिस को एक अंजाम दिया जा सके। ऐसे तो हम मौतें ही गिनते रह जायेंगे।
गोरखपुर में सेण्टर ऑफ़ एक्सेलेंस फॉर जेई बनाये जाने की मांग को लेकर सांसदों से आवेदन किया जा रहा है कि वे इस मुद्दे को सदन में उठायें और अविलम्ब सेण्टर को गोरखपुर में स्थानांतरित कराएँ। जिन सांसदों को यह आवेदन किया जा रहा है उनमे योगी आदित्यनाथ, आर.पी.एन सिंह, जगदंबिका पाल, हर्षवेर्धन सिंह, कमल शामिल हैं। साथ ही जिन लोगों ने पूर्व में एन्सेफलाईटिस के प्रति संवेदना दिखाई है उनसे भी आवेदन किया जा रहा है जैसे राहुल गाँधी और राजबब्बर। २००६-२००८ में इन लोगों ने काफी संवेदना दिखाई थी।
एक बात और ! एन्सेफलाईटिस से मौतों का सिलसिला लगातार जारी है। अकेले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में साल २००५ में इस बीमारी के ४७५२ मरीज़ आए जिनमे से ११३५ की मौत हो गई। २००६ में २०२९ आए ४३७ मर गये। २००७ में २७२९ आए ५४७ मर गये। २००८ में दो हज़ार आए ४५० मर गये। इस साल जनवरी से अब तक २५०९ मरीज़ आए जिनमे से ४८४ की मौत हो चुकी है। मरीजों का आना और मर जाना लगातार जारी है। कोई है जो इन्हें बचाएगा ?
(लेखक एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन अभियान के चीफ काम्पेनर और प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ हैं )
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