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सोमवार, 2 नवंबर 2009

पहले एक दीया इनके लिए रौशन कर दूँ

छपाक के एक पाठक ने 'क्या सरकार झूठ बोलती है' शीर्षक वाली खबर पर प्रतिक्रिया में लिखा है कि छपाक पर एन्सेफ्लाईटिस के अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया जाना चाहिए। निसंदेह....छपाक पर अभी तक सबसे ज्यादा सामग्री एन्सेफ्लाईटिस से सम्बंधित ही रही है। मैं मानता हूँ कि जब हमने छपाक के जरिये ठहरे हुए पानी को सड़ने से बचाने का बीडा उठाया है तो सिर्फ़ एन्सेफलाईटिस नहीं अन्य समसामयिक मुद्दों पर भी हस्तछेप करना होगा। लिहाजा उस पाठक की बात को सर आंखों पर रखते हुए मैं वायदा करता हूँ कि छपाक का दायरा बहुत जल्द बढाया जाएगा।
लेकिन पूरी बिनम्रता के साथ मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि छपाक पूर्वांचल के हजारों बच्चों और बड़ों की मौत का सबब बनने वाली बीमारी एन्सेफ्लाईटिस को किसी भी कीमत पर बख्शने वाला नहीं है। छपाक इस बीमारी के समूल नाश के लिए प्रतिबद्ध है। छपाक के जरिये एन्सेफ्लाईटिस विरोधियों की गोलबंदी जारी रहेगी।
इस बीमारी को मामूली मत समझिये। पूरे ३२ बरस हो गये। पहले तो इसका एक चरित्र था, एक सीजन था। अब ना कोई चरित्र है ना कोई सीजन। बारहों मॉस कहर बरपाती रहती है। मुझे तो ताज्जुब इस बात का है की ३२ बरस में २८ बरस, समाज के किसी विशिष्ट वर्ग (मीडिया सहित ) ने उस ढंग से लग कर कुछ क्यों नहीं किया कि सरकार के बंद कानों तक बात सिर्फ़ पहुंचे नहीं बल्कि सरकार अगर तुंरत कुछ ना करे तो इतना शोर मचे कि उसके कान के परदे ही फटने लगें। तब देखते कि सरकार पूरी तरह बहरी होना पसंद करती है या फ़िर लोगों को बचाने के लिए आगे आती है। ताज्जुब है कि एन्सेफ्लाईटिस के आने के २८ बरस तक तो पूर्वांचल में किसी ने 'चूँ' तक नहीं की। सन १९७८ में जब पहली बार गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इसके मरीज़ आए तो लोगों ने इसे 'नौकी बीमारी' का नाम दे दिया जो गाँव-देहात में आज तक बदस्तूर कायम है। याद कीजिये....ये वही दौर था जब गोरखपुर, अपराध के अन्तरराष्ट्रिय मानचित्र पर शोहरत पा रहा था। इसी दौर में पूर्वांचल के रणबांकुरे छत्रिय-ब्रह्मण जातीय संवेदना में ओत-प्रोत हो गैंगवार को परवान चढा रहे थे। आज उस गैंगवार की कोख से उपजे कई बाहुबली 'माननीय' जनप्रतिनिधि बनकर विधायिका की शोभा बढा रहे हैं। पूर्वांचल की राजनीत और समाज पर इनकी गहरी छाप है। पूर्वांचल के चुनावों में जातीय और धार्मिक समीकरणों की महत्ता कोई भी विश्लेषक बता देगा। लेकिन इन दोनों समीकरणों की राजनीती करने वालों ने पिछले ३२ बरस में कभी भी एन्सेफ्लाईटिस से तिल-तिल कर मरते हजारों बच्चों और उनके गरीब-बदनसीब माँ-बाप का दर्द बाँटने की कोशिश कभी नहीं की। बात-बात पर खून बहाने वाले नेता भला खून चूसने वाले मच्छरों के खिलाफ होते भी तो कैसे। बल्कि इन दोनों खूनचूसवों के बीच ३२ सालों से एक प्रकार की दुरभिसंधि जैसी है। ना मच्छर इन्हें काटते हैं और ना ये मच्छरों को ख़त्म करने के लिए कुछ करते हैं।
अब बात मीडिया की। गौर करें तो २००५ में एन्सेफ्लाईटिस के महामारी की शक्ल लेने से पहले तक मीडिया की रिपोर्टिंग ज्यादातर रश्मी रही। २००५ में मीडिया ने गोरखपुर से लखनऊ और दिल्ली तक पहली बार अपनी ताकत का ठीक से एहसास कराया। इसका नतीजा भी निकला। तत्कालीन राज्यपाल टी.वी.राजेश्वर से लेकर राहुल गाँधी तक गोरखपुर पहुंचे। तब एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन की लड़ाई लड़ रहे डॉक्टर आर.एन.सिंह और उनके चिकित्सक कुनबे ने जोर-शोर से मांग उठाई। डॉक्टर के.पी.कुशवाहा और ऐ.के.राठी मुखर हुए। मीडिया के दबाव ने सरकार को चीन से टीकों का आयात करने पर मजबूर कर दिया। इस तरह पूर्वांचल में २८ सालों से मौत फैला रही बीमारी से निपटने की कोशिश पहली बार शुरू हुई। उसी समय एन्सेफ्लाईटिस से मरने और विकलांग होने वालों के लिए मुआवजे, सूअरबाड़ों को आबादी से दूर ले जाने और मच्छरों को मिटाने के लिए एरिअल फोगिंग की बात भी जोर-शोर से उठी। मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर आर.एन.सिंह ने राहुल गाँधी को एरिअल फोगिंग का महत्व समझाया। उन्होंने बताया-अगर एरिअल फोगिंग हो जाए तो बीमारी का प्रकोप तुंरत कम हो जाएगा। डॉक्टर सिंह की बात राहुल गाँधी की समझ में आई। उन्होंने लौटकर तुंरत हेलीकॉप्टर भेजा लेकिन 'कहीं उत्तर प्रदेश में राहुल की राजनीती चटक ना जाए' इस आशंका में घुली जा रही तत्कालिन मुलायम सरकार ने उक्त हेलीकॉप्टर को रायबरेली से उड़ने नहीं दिया। ठीक इसी तरह की सोच से पीड़ित मायावती सरकार ने भी सत्ता में आते ही मुलायम राज में शुरू किए गये मुआवजे को बंद कर दिया है।
जाहिर है, ३२ बरस से एन्सेफ्लाईटिस के तांडव को ख़त्म करने के बजाये यूपी की सियासी पार्टियाँ गन्दी सियासत का खेल खेल रही हैं। पूर्वांचल की भोली-भली शांतिप्रिय गरीब जनता को भेंड-बकरी समझ रखा है सियासी पार्टियों ने। हद दर्जे की संवेदनहीनता से ग्रसित हमारे नेताओं को गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के वार्ड नम्बर ६० में एक-एक बिस्तर पर पिछले ३२ सालों में मर चुके सवा-सवा- सौ बच्चों की लाश दिखाई नहीं पड़ती। उन्हें तो आज भी वहां एक-एक बिस्तर पर दो-दो, तीन-तीन बीमार बच्चे और उनके माँ-बाप की परेशानी से कोई वास्ता नहीं। ना कोई शर्म है, ना कोई समझ! ..... और जागरूकता का आलम ये है- आज भी जनता वोट देते वक्त अपने बच्चों की मौत का हिसाब मांगने के बजाये साड़ी-शराब पाकर खुश होती है।
ऐसे हालत में एक पत्रकार होने के नाते अगर एन्सेफ्लाईटिस पर ठीक से नहीं लिखूंगा तो क्या माँ सरस्वती मुझसे प्रसन्न रहेंगी। कोई भी व्यक्ति देश-काल की परिस्थितियों से मुहं नहीं छिपा सकता। महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने साम्प्रदायिकता से लड़ते-लड़ते अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था। तो क्या हम आज हमारे छेत्र की ज्वलंत समस्या एन्सेफ्लाईटिस के खिलाफ अपनी कलम भी नहीं चलाएंगे। बल्कि मैं तो समाज के सभी वर्गों से आह्वान करता हूँ की एन्सेफ्लाईटिस उन्मूलन के लिए जो कुछ कर सकते हैं, जरूर करें। जो कवि-कहानीकार हैं वे एन्सेफ्लाईटिस से उजाड़ दुनिया में अपनी कविताओं- कहानियों के पात्र ढूँढें। वकील सरकारी चुप्पी के खिलाफ अदालतों में जाएँ। डॉक्टर समर्पित होकर एन्सेफ्लाईटिस पीडितों का मुफ्त इलाज करें। सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर आर.एन.सिंह की तरह कुछ गांव चुनकर वहां एन्सेफलाईटिस उन्मूलन के पॉँच सूत्रों को लागू कराएँ। धनवान एन्सेफलाईटिस उन्मूलन के काम में धन से सहयोग करें। नौजवान उन नीप ग्रामो में अपना श्रम दें जहाँ एन्सेफ्लाईटिस ख़त्म करने के प्रयासों को अमली जमा पहनाया जा रहा है। बाहुबली 'माननीय विधायिकाओं में पुरजोर ढंग से एन्सेफलाईटिस उन्मूलन की मांग उठायें। पंडित और मौलवी एन्सेफ्लाईटिस से मुक्ति के लिए इश्वर की प्रार्थना करें। विद्यार्थी गांव-गांव में लोगों को एन्सेफ्लाईटिस से बचने के उपाय बताएं। .......और जो कुछ नहीं कर सकते वे कम से कम अपनी आँखें नम किए उन बच्चों को उठाने में मदद करें जिन्हें बीमार हालत में अस्पताल या फ़िर मौत के बाद शमशान ले जाते वक्त बदनसीब माँ-बाप के कंधे जबाब दे देते हैं।

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