अब आप जरा इस विशेष मच्छर की विशेषता भी सुन लीजिये. उत्तरी एशिया और अफ्रीका के कुछ इलाकों में जन्मे ये मच्छर महोदय, हमारे यहाँ धान के खेतों में तेजी से अपनी वंशवृद्धि करते हैं. पालतू सूअर और जंगली पंछी जापानी 'बी' एनसेफ्लाईटिस वायरस के वाहक हैं. 'क्युलेक्स' मच्छर के पोते-परपोते जब इन्हें काटते हैं तो ये भी जापानी 'बी' एनसेफ्लाईटिस वायरस से भरे-पूरे हो जाते हैं. फिर जब ये मच्छर हमारे-आप जैसे किसी इंसान को काटते हैं तो हमें जापानी 'बी' एनसेफ्लाईटिस हो जाता है. जब ये मच्छर किसी बच्चे को काटता है तो एनसेफ्लाईटिस का वायरस और भी तेजी से असर डालता है. बीमारी के शुरूआती दौर में हल्का बुखार और हल्का सिरदर्द होता है. लेकिन बीमारी गंभीर होने के साथ ही बुखार की तीव्रता बढती जाती है. मरीज़ को तेज़ सिरदर्द के साथ झटके आते हैं. हालत बिगड़ने पर वो कोमा में भी जा सकता है. इस बीमारी के करीब ७० फीसदी मरीज़ मौत या विकलांगता के शिकार हो जाते हैं. जापानी 'बी' एनसेफ्लाईटिस वायरस मच्छर काटने के ५ से १५ दिनों के भीतर अपना असर दिखाता है. एशिया में यही वायरस, वायरल एनसेफ्लाईटिस का भी बडा कारण है. एशिया में हर साल इसके ३५ हज़ार से ५० हज़ार मामले सामने आते हैं. लेकिन आपको हैरानी होगी की अपने नागरिकों की जान की कीमत समझने वाले अमेरिका में इस बीमारी का साल भर में हद से हद सिर्फ एक मामला सामने आता है. वो भी सेना के उन जवानों में जो किसी वजह से एशिया की यात्रा करते हैं.
हमारे लिए दुर्भाग्य की एक बात ये भी है की इस बीमारी का अब तक कोई 'तय' इलाज नहीं है. सिर्फ कुछ सपोर्टिव दवाओं के सहारे मरीजों को बचाने की कोशिश की जाती है. ये बीमारी शहरी इलाकों में नहीं पाई जाती लिहाजा गाँव-देहात में रहने वाले इस बीमारी के सबसे बडे शिकार बनते हैं. भारत से पहले जिन देशों में इस महामारी ने सर्वाधिक तबाही मचाई है उनमें चाइना, कोरिया, जापान, ताइवान और थाईलैंड शामिल थे. लेकिन इन सभी देशों ने ब्यापक टीकाकरण के जरिये इस बीमारी पर काबू पा लिया. लेकिन अभी भी जो देश इस बीमारी की चपेट में रह गए हैं उनमें वियतनाम,कम्बोडिया, नेपाल, म्यामार, मलेशिया और भारत शामिल हैं. भारत में पूर्वांचल का इलाका इस बीमारी से सर्वाधिक पीड़ित है.
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