इस वार्ड की तस्वीरें आज भी बिलकुल वैसी ही हैं जैसी तब थीं. एक-एक बिस्तर पर दो-दो, तीन-तीन बच्चे. आक्सीजन मास्क से ढंका उनका चेहरा. नसों में ढेरों सुइयां. उखड्ती सांसें, कराहती सिसकियाँ. वे अपनी टूटती आवाजों में बामुश्किल, 'पापा.....वो......पापा......अम्मा......वो अम्मा.....बुदबुदाते हैं. मानो कह रहे हों कि 'ऐ पापा.....क्या तुम हमें इन सुइयों से भी नहीं बचा सकते?' 'अम्मा.....तुम्हारी छाती से लगकर अभी तो हमने दुनिया में जीने की पहली कोशिश ही की थी. क्या इतनी जल्दी तुम्हारा आँचल छूट जायेगा! क्या तुम कुछ भी नहीं कर सकती......माँ! अस्पताल के इस बिस्तर पर तुम कैसे छोड़ जाओगी मुझे? वापस जाते वक्त...... मेरा निर्जीव शरीर, क्या समा पायेगा तुम्हारे आँचल में...... पापा! जिनकी उँगलियाँ पकड़कर मुझे चलना सीखना था.... क्या उनसे मेरी लाश उठाई जायेगी?'
कितने चेहरे अपने कैमरे मैं कैद करने वाला अखिलेश भी भूल पाया होगा. उसकी चीखें आज भी याद आते ही मेरे कानों में गूंजने लगती हैं. मुझे याद है जयवीर सिंह के सामने वो सीढियों पर लाश लिए बैठ गया था. उसके रुदन ने थोडी देर के लिए मंत्री और उनके पूरे अमले को वहीं ठिठक जाने पर मजबूर कर दिया था. फिर सब आगे बढ़ गये. उस अभागे पिता से मैंने पूछा 'तुम कहाँ के हो'.....पिता ने रोते हुए जबाब दिया 'पीपीगंज.....मिटटी ले जाने के लिए पैसा नहीं है.' बिना कोशिश किये, मेरा हाथ अपनी जेब टटोलने लगा. मैंने अखिलेश से कैमरा आफ करने को कहा. जेब में सौ का एक नोट था जिसे उसके हवाले करके मैं आगे बढने लगा तो अचानक उसने पैर पकड़ लिए. मुझे उसकी आखों में बेटे के गम के साथ भयानक बेबसी के भावः भी नज़र आये. उस साल मेडिकल कॉलेज के वार्ड नंबर ६० को एक से बढ़कर एक हस्तियों के दीदार हुए. तत्कालीन राज्यपाल टी.वी.राजेस्वर, युवराज राहुल गाँधी, तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, सलमान खुर्शीद और जाने कौन-कौन.
इन्हीं हस्तियों में से तत्कालीन मुख्य सचिव नीरा यादव भी थीं. मेडिकल कॉलेज में उनका आना मुझे दो कारणों से भली-भांति याद है. हुआ यूँ कि नीरा यादव के आने से काफी पहले पुलिस और जिला प्रशासन के अधिकारियों ने गंभीर रूप से बीमार मरीजों को एक अलग वार्ड में छिपा दिया था. डर था कि कहीं श्रीमती यादव के सामने किसी बच्चे की मौत ना हो जाए. परिजनों को बाहर कर दिया गया था. कैमरों को मोटी-मोटी रस्सियों के उस पार और पत्रकारों को वार्ड के एक कोने में समेट कर प्रशासन ने अपनी तैयारी पूरी कर ली थी. नीरा यादव आईं. चेहरे पर संवेदना लाने की कोशिश करते हुए आगे बढीं. वार्ड में खासतौर से समझा-बुझाकर रोके गये साफ-सुथरे परिजनों और कुलीन डॉक्टरों से ना सुन सकने जितनी धीमी आवाज़ में बातें करती हुईं वे आगे बढ़ रही थीं. कैमरे धड़ाधड़ फ्लैश चमका रहे थे. पत्रकार भी उचक-उचक कर अपनी जिज्ञासा मिटा रहे थे. सब कुछ ठीक-ठाक ही था. इलेक्ट्रोनिक चैनल वालों की बाईट भी हो चुकी थी. कोई बखेडा ना खडा होने के चलते राहत महसूस कर रहे अधिकारी अब नीरा को विदा करने की तैयार में थे कि तभी उनका बना-बनाया खेल बिगड़ने लगा. छुपाकर रखे गये बगल के वार्ड में एक बच्ची की हालत अचानक बिगड़ गयी. इधर डॉक्टर बच्ची के सीने को पम्प कर रहे थे उधर उसके माँ-बाप का रो-रोकर बुरा हाल था. बच्ची की हर टूटती साँस के साथ उनका रोना बढता जा रहा था. अचानक उन्हें एहसास हुआ कि अब उनकी बच्ची नहीं बचेगी. इस एहसास ने उनके रुदन को चीखों में बदल दिया. लेकिन इससे पहले कि ये चीखें नीरा यादव के कानो तक पहुँचती प्रशासन के हिमायती हाथों ने हलक में ही उन्हें रोक दिया. बिस्तर पर जिनकी बच्ची मर रही थी बगल में उन माँ-बाप के मुंह को कस कर दबाये अधिकारी उन्हें धमकाए जा रहे थे. अधिकारियों के इस पाप को मेरे कैमरामैन ने अपने कैमरे में कैद किया और हमने ईटीवी पर उसे दिखाया भी.
लेकिन उस वक्त मन में इसे खबर के रूप में दिखाने से ज्यादा ईश्वर में अपनी अटूट आस्था के खिलाफ एक विचार पनप रहा था. आखिर इस वार्ड में हर रोज़ मरते छोटे-छोटे मासूम बच्चों ने क्या पाप किया है, जिसकी सजा में ईश्वर इन्हें मौत बाँट रहा है? मैंने यही सवाल अपने पास खड़े हिंदुस्तान गोरखपुर के इंचार्ज और सीनिअर जर्नलिस्ट हर्षवर्धन शाही से किया? मेरे सवाल के जबाब में शाहीजी ने जो उत्तर दिया वो सही था या गलत, ये तो मैं तय नहीं कर पाया लेकिन आज तक मुझे उससे बेहतर संतावना नही सूझी. शाहीजी ने कहा,'' जैसे तुम कोई स्क्रिप्ट फाइनल करने से पहले जाने कितने शब्द लिखते और मिटा देते हो शायद ईश्वर भी ऐसा ही करता हो. आखिर इस संसार का सबसे बड़ा संपादक तो वही है ना!"
Rahul_Gandhi_With_Patient_of_encephlaitis
chale der se hi mana lekin mana to sampadak to wahi hai
जवाब देंहटाएंअच्छी खबर है
जवाब देंहटाएं