अजय कुमार सिंह
कभी ईटीवी में साथी रहे वीओआई के सीनिअर प्रोड्यूसर अशोक उपाध्याय ऑफिस में काम के दौरान ही मौत की नींद सो गये। कहने वाले कह रहे हैं कि इसके लिए वीओआई में जन्म से ही मची उथलपुथल जिम्मेदार है। यह बिल्कुल सही भी है। अशोक जी के बारे में ये कहा जाता है कि वे बेहद अंतर्मुखी थे। अपने काम से काम रखते, बुरे से बुरे हालत में भी धैर्य नहीं छोड़ते , बल्कि साथियों को सान्तवना देते थे। अशोक जी अपने पीछे पत्नी और 11साल का एक बेटा छोड़ गये है। वीओआई के नए प्रबंधन ने उनके परिवार को पाँच लाख रुपये तत्काल देने का एलान किया है। वीओआई के चैयरमेन अमित सिन्हा ने भरोसा दिलाया है कि दुःख की इस घड़ी में पूरा वीओआई परिवार अशोक जी के परिवार के साथ है। अशोक जी के बाद उनके परिवार के लिए इसके सिवा भला कोई और कर भी क्या सकता है। और फ़िर सच तो ये है कि कोई कुछ भी कर ले अब ना तो अशोक जी कभी लौटेंगे और ना ही उनके बीबी बेटे की जिंदगी का खालीपन कभी भर पायेगा। जो नुक्सान होना था वो हो चुका है। अब तो सिर्फ़ जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश भर हो सकती है। अशोक जी जब हैदराबाद में थे तब मैं भी अक्सर मीटिंग के लिए वहां जाया करता था। हैदराबाद में उडीसा, बंगाल, कर्नाटक, महारास्त्र, मध्ये प्रदेश, गुजरात और देश के लगभग सभी जगहों से लोग होते थे।
उनमे से कई मुझे इस वजह से पहचानते थे क्योंकि मेरी खबरें चर्चित और पीटीसी ज़ोरदार हुआ करती थी। लेकिन अशोक जी को मैं पहचानता था क्योंकि वो ईटीवी के अच्छे एंकरों में थे। अशोक जी से कभी लम्बी बातचीत का मौका नहीं आया लेकिन उनकी ख़ुशमिज़ाजी का एहसास उन्हें देखकर ही लग जाता था। मुस्कुराते अशोक जी को देखकर लगता था जैसे पत्रकारिता के उतार चढाव से अच्छी तरह वाकिफ होंगे और लंबे कैरिएर में सारा तजुर्बा हासिल कर चुके होंगे। अशोक जी ने ईटीवी मेरे कुछ दिन बात ही छोड़ा। मैं लखनऊ में था। वे हैदराबाद में। हम दोनों एक ही चैनल में थे। चैनल छोड़ने के पीछे दोनों का मकसद भी एक ही था, कैरीएर में बेहतरी। लेकिन ना उन्हें मेरे बारे में मालूम था ना मुझे उनके बारे में। दरअसल ईटीवी में हम जैसे कई लोगों ने उसी अंतराल में चैनल छोड़ा था। ज्यादातर ने वीओआई ज्वाइन किया और मैंने इंडिया न्यूज़। वीओआई में हालात बहुत ख़राब रहे। लगातार बुरी खबरें आती रहीं। पिछले लोकसभा चुनाव के आते-आते तो हालात कई जगह ख़राब हो गए। अशोक जी को देखकर इतना नहीं लगता था लेकिन आज लगता है कि अशोक जी बेहद संवेदनशील रहे होंगे। वैसे संवेदनशील तो ईटीवी छोड़ने वाले हममे से ज्यादातर हैं। लेकिन मुझमे अशोक जी जितनी सहनशीलता नहीं है। वैसे मैं यह भी मानता हूँ कि दुनिया में कोई भी ऐसी चीज़ नहीं जिसके लिए चार दिन की इस जिंदगी को मनहूस बना लिया जाए। खूब काम करना, इमानदारी बरतना , बड़ों की इज्ज़त करना, अनुशासन का पालन करना और संगठन की अपेछाओं से ज्यादा देना, मेरे खून में हैं। लेकिन इन सबसे अलग मेरे अन्दर की एक अलग दुनिया है जहाँ बाहर का कोई दखल नहीं। बस मेरे लिए यही मेरी सीमा है। अपने काम और कैरीएर के प्रति बेहद गंभीर हूँ। लेकिन अगर काम अन्तरचेतना को प्रभावित करने लगे तो। अगर ना चाहते हुए भी आपका पाला अगंभीर, बिशुद्ध लम्पटों से पड़ जाए तो। क्या करेंगे आप। या तो समझौता करेंगे या कहीं और जगह तलाशेंगे या फ़िर लड़ पड़ेंगे। एक चौथा रास्ता भी है कि ख़ुद को इन सबसे किनारे कर कोई नया रास्ता बनायेंगे। भाई मैं कहता हूँ आप इनमे से कोई रास्ता अपनाईये लेकिन कृपा करके अन्दर ही अन्दर घुटिये मत। अशोक जी ने शायद यही किया। वरना ४२ साल की उमर कोई मरने की नहीं होती। हम जब ईटीवी में थे तो ईनाडु जर्नेलिज्म स्कूल में वर्कशॉप होती थी। जहाँ हमें तनाव को ख़ुद पर हावी ना होने देने की ट्रेनिंग दी जाती थी। बताया जाता था कि मीडिया में जो कुछ नहीं करता वो दूसरों को तनाव देता है। लेकिन आपके लिए आपकी जिंदगी से बढ़कर कुछ भी नहीं। ये नौकरी आख़िर तभी तक है जब तक आप हैं। और तभी तक आप अपने बीबी-बच्चों का पेट भी पाल पा रहे हैं। आप ख़त्म सब ख़त्म। मैयत के बाद कोई नहीं आता आपके बच्चे की फीस भरने। कोई नहीं पूछता कि आपके घर वाले किस हाल में हैं। मैंने सुना कि एनडीटीवी ने कभी अपने रिपोर्टर-कैमरामैन को हेलमेट दिया था। देश में जरूर कुछ ऐसे संगठन हैं जो अपने कर्मचारियों को इंसान समझते हैं। लेकिन ज्यादातर तो अपने रिपोर्टर-कैमरामैंन-एंकर-कॉपी एडिटर को कंडोम समझते। काम करते-करते या ख़ुद फट जाओगे या निकाल कर फैंक दिए जाओगे। जाहिर है आप कंडोम नहीं बनाना चाहते। तो फ़िर अपने अंतर्चेतना को जगाये रखिये, कोई उसे छेड़े तो उसे तुरंत छोड़िये। विकल्प ना हो तो भी फट जाने तक बर्दाश्त करने के बजाये, वक्त रहते दूसरी राह तलाशिये, वरना अशोक जी कोई अपवाद नहीं हैं। हममे से कोई भी उन जैसा हो सकता है।
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
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