अजय कुमार सिंह
अंग्रेजों के भारत से चले जाने के ६३ साल बाद एक बार फिर हमे हर तरफ वही घिसी-पिटी तकरीरें सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं. वही पुराने शीर्षक 'हम कितने आज़ाद हुए.......', 'सच्ची आज़ादी कब मिलेगी.....', 'आज़ादी के मायने.....' 'क्या हम सचमुच आज़ाद हैं.....?' घुमा फिर कर हर लेख में यही बात है कि हमारे महापुरुषों ने जिस मकसद से आजादी हासिल की थी वो पूरा नहीं हुआ.
बड़ी दिक्कत है भाई. मैं बड़ा कन्फ्यूज़ हूँ. अभी पिछले साल जब चीन ने अपना ६० वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाया तो हमारी आँखें फटी रह गईं. हमारे टीवी चैनलों ने तो चीनी सेना और भारतीय सेना की जोरशोर से तुलना भी शुरू कर दी. सबसे ज्यादा बुरा तो यह लगा कि कुछ चैनलों ने चीनी सेना को हमारी सेना से दुगुना ताकतवर बताते हुए यह कहना शुरू कर दिया कि अगर युद्ध हुआ तो हमारी सेना अमेरिका की सेना के साथ मिलकर चीनी सेना के छक्के छुड़ा देगी. हालांकि नवम्बर २००९ में चीन के तीन दिवसीय दौरे पर गये ओबामा ने कश्मीर के मसले में चीन को पंचायत का स्कोप देकर कई भ्रम मिटा दिए.
हम हिन्दुस्तानी पता नहीं किस सपने रहते हैं. ये होना चाहिए. ये होगा तो ये हो जायेगा. पता नहीं क्या-क्या सोचते रहते हैं. बस करते उतना ही हैं जितने से अपना काम चल जाए. अब देखिये ना! १५ अगस्त आया नहीं कि एक से एक वक्तव्य आने लगे. कोई फर्जी उपलब्धियों का बखान कर रहा है तो कोई सबको कुंठित करने में जुटा है. जबकि दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं उन्हें देश से कोई लेना-देना नहीं है. बस! कुछ बोलना है, लिखना है सो कोरम पूरा कर दिया.
बड़ी बिनम्रता से मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि देश के बारे में आप जब भी कुछ अच्छा या कड़वा सच बोलें तो याद रखें कि सिर्फ बयानबाज़ी या लेखन से किसी देश के हालात नहीं बदला करते. यदि आप वाकई हालात बदलने के लिए गंभीर हैं तो फिर आपको ईमानदार कोशिश करनी होगी.यह कहने से काम नहीं चलेगा कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. या तो आप कुछ करके बदलाव की नीव डालिए या फिर चुप रहिये. अगर ये दोनों नहीं कर सकते और वाकई हालात से दुखी हैं तो फिर फंटूश फिल्म में किशोर कुमार द्वारा गया वो गाना याद कीजिये......दुखी मन मेरे मन मेरा कहना......जहाँ नहीं चैना वहां नहीं रहना!
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रविवार, 15 अगस्त 2010
रविवार, 8 अगस्त 2010
दुधारू की दुल्लती
अरसे से जलयुक्त दूध का रसास्वादन करने के बाद आजकल मेरे घर वालों पर शुद्ध दूध मंगाने का शौक सवार हुआ है. जाहिर है इस कष्टप्रद काम को अमली जामा पहनाने के लिए मैं सबसे उपयुक्त माना गया हूँ. नतीजतन पिछले एक हफ्ते से सुबह पॉँच बजे ही बिस्तर से उठा दिया जाता हूँ. चाहूं- ना चाहूं क्या फर्क पड़ता है. दूध की बाल्टी लेकर उनीदीं आखों को मलते ग्वाले के घर पहुंचना ही पड़ता है. आजकल रोज़ सुबह शुरुआत ऐसे ही होती है. आज सुबह ग्वाले के घर पहुंचा तो वो गाय के दोनों पैरों को बांधने में जुटा था. इस गाय ने १४ रोज़ पहले एक बछड़े को जन्म दिया है. थोड़ी देर में बछड़ा छोड़ा जाता है. खूंटे से छूटते ही बछड़ा दौड़ कर गाय के थन के पास पहुँचता है और जोर-जोर से मुंह मारते हुए दूध पीना शुरू कर देता है. उधर गाय बछड़े का शरीर चाट रही होती है. वात्सल्य का कैसा प्यारा दृश्य था. बामुश्किल ३० सेकेण्ड गुजरे होंगे. तभी ग्वाले ने गले में बंधी रस्सी से बछड़े को खींच लिया. पता नहीं क्यों मुझे बहुत बुरा लगा. मन में सोचने लगा इंसान कितना स्वार्थी है.....मैं अभी इस विचार से जूझ ही रहा था कि बछड़े ने रस्सी तुड़ाने की कोशिश की लेकिन ग्वाले ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. अलबत्ता बछड़े की इस हरकत से ग्वाला को गुस्सा आ गया और उसने बछड़े की पीठ पर दो हाँथ जमा दिए. १४ दिन के बछड़े की पिटाई! देखी ना गई. मुंह से अनायास ही निकल पड़ा. उन्हह..उन्हह....मारो नहीं...! बछड़े को बांध अब ग्वाला गाय को दुहने में जुट गया. गाय की दोनों आँखों से आंसुओं की दो धार निकलती साफ़ नज़र आ रही थीं. मानो अपने नवजात के साथ हो रही ज्यादती का दर्द आँखों से छलक आया हो लेकिन बेफिक्र ग्वाला उस बेचारी गाय के थन से दूध निकालने में जुटा था. अपने काम में ग्वाला इस कदर लीन था कि उसे एहसास ही नहीं रहा कि कब गाय के पैरों में बंधी रस्सी ढीली पड़ गई. ग्वाला दूध दुहता रहा और गाय के पैरों से लगायत पूरे शरीर पर बैठे मच्छर उसे डसते रहे. इसी बीच कसमसाती गाय ने ग्वाले को एक दुल्लती मारी. ग्वाला पीछे पीठ के बल गिरा लेकिन बाल्टी उसके हाँथ में ही रही. उसने दूध को गिरने से बचा लिया था. थोड़ी देर पहले ग्वाले का गुस्सा देख चुका मैं सोच रहा था कि ग्वाला अब गाय पर टूट पड़ेगा. पर! ये क्या? ग्वाले पर तो जैसे गाय की दुलत्ती का कोई असर ही नहीं हुआ. वो मुस्कुराते हुए उठा. गाय के पैरों में दुबारा रस्सी बांधी और दूध दुहने में जुट गया. मैंने सुना बहुत था आज देख भी लिया, ऐसी होती है दुधारू की दुल्लती.
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