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बुधवार, 28 अप्रैल 2010

ब्रेकिंग न्यूज़! पूर्व डी.एस.पी शैलेन्द्र प्रताप छोड़ेंगे कांग्रेस

अजय कुमार सिंह
एस.टी.एफ डी.एस.पी की नौकरी छोड़कर राजनीति में दांव आजमाने वाले शैलेन्द्र प्रताप सिंह ने अब कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया है. शैलेन्द्र, कांग्रेस में अपराधियों की घुसपैठ से नाराज़ हैं. विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि शैलेन्द्र एक -दो रोज़ में कांग्रेस छोड़ने का एलान कर सकते हैं.
गौरतलब है कि कांग्रेस में शैलेन्द्र, सूचना का अधिकार टास्क फोर्स  के बतौर प्रमुख काम करते हैं. पिछले तीन सालों से शैलेन्द्र इस टास्क फ़ोर्स के जरिये मायावती सरकार की आँख की किरकिरी बन गए थे. सितम्बर २००८ में सरकार ने आधी रात को शैलेन्द्र को लखनऊ स्थित आवास से गिरफ्तार करवा लिया था. हजरतगंज थाने में सारी रात हवालात में काटने के बाद कांग्रेस ने उनकी गिरफ्तारी को पूरे प्रदेश में मुद्दा बना दिया था. तब पार्टी की प्रदेश अध्यछ रीता बहुगुणा शैलेन्द्र की गिरफ्तारी को मुद्दा बनाने में सबसे आगे थीं. लेकिन यही रीता बहुगुणा और कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह ने बाहुबली विधायक अजय राय के घर जाकर चाय पी और शैलेन्द्र को नाराज़ कर लिया. शैलेन्द्र जब डी.एस.पी थे तब अजय राय एस.टी.एफ की हिट लिस्ट में हुआ करते थे. कुछ दिन पहले ही तुलसी सिंह को कांग्रेस ज्वाइन कराई गई. तुलसी सिंह मकोका में जेल जा चुके हैं.
मिशन २०१२ में जुटी कांग्रेस ने हाल में दस स्थानों से रथ यात्रा निकाली है लेकिन बुलंदशहर में यह यात्रा 'बार डांसर्स' की वजह से विवादों में आ गई. शैलेन्द्र प्रताप कांग्रेस के इस भटकाव से खफा हैं. शैलेन्द्र की नाराज़गी की एक और वजह है. पिछले १९ अप्रैल को शैलेन्द्र प्रताप की अगुवाई में दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना और मार्च का कार्यक्रम था. उस कार्यक्रम में दिग्विजिय सिंह को जाना था लेकिन ऐंन वक्त दिग्विजय ने फोन करके शैलेन्द्र को बताया कि वे नहीं आ सकते. चिलचिलाती धूप में शैलेन्द्र की अगुवाई में अपने खर्चे से गए करीब छ हज़ार गरीब मायूस होकर लौटे. पुलिस ने उन्हें सडकों पर निकलने नहीं दिया और कांग्रेस का कोई नेता उनसे मिलने नहीं गया. मायूस गरीबों ने शैलेन्द्र से यह कहकर अपनी शिकायत दर्ज कराई कि क्या राहुल गाँधी गरीब दलितों की बस्ती में जाकर महज नाटक करते हैं.
नाराज़ शैलेन्द्र ने अपनी शिकायतों का पुलिंदा सीधे राहुल गाँधी को भेजा है. लेकिन अभी तक उन्हें कोई जबाब नहीं मिला है. राहुल गाँधी की चुप्पी और प्रदेश कांग्रेस नेताओं के रवैये से शैलेन्द्र की नाराज़गी और बढ़ गई है. सूत्रों की माने तो ये नाराजगी बहुत जल्द उनके इस्तीफे में बदल सकती है.

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

चिदंबरम साहब ऐसे तो नहीं जाएगा नक्सलवाद!

अजय कुमार सिंह
गृहमंत्री पी.चिदंबरम की क़ाबलियत पर देश में शायद ही किसी को संदेह होगा. लेकिन नक्सलवाद के सफाए लिए पिछले कुछ अरसे से उनकी हर बात उलटी पड़ रही है. छः अप्रैल को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के जंगलों  में 76 सीआरपीएफ के जवानों को नक्सलवादियों ने जिस तरह निशाना बनाया वो शर्मनाक है. सरकार को समीछा करनी पड़ेगी कि आखिर क्यों हमारे प्रशिछित सुरछाबल जरा सी विपरीत परिस्थितियों में मुंह के बल गिरते हैं. कमी कहाँ है? गृह मंत्री के तौर पर यह घटना मिस्टर चिदंबरम के लिए व्यक्तिगत रूप से सोचनीय है. उन्हें मंथन करना चाहिए कि आखिर क्यों पिछले एक साल से बतौर गृहमंत्री वे जब भी नक्सलवाद के सफाए की बात करते हैं, नक्सली और ज्यादा मज़बूत हो जाते हैं. मि.चिदंबरम को अपना कन्फ्यूज़न भी दूर करना होगा. पता नहीं क्यों वे कभी नक्सलवादियों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं तो कभी उनसे बातचीत की पेशकश करते हैं. अभी एक हफ्ते पहले ही केंद्र सरकार ने मीडिया में करोड़ों के विज्ञापन जारी कर नक्सलियों से बातचीत का रास्ता अख्तियार करने और मुख्यधारा में लौट आने की अपील की थी. फिर मि.चिदंबरम पश्चिम बंगाल पहुँच गए और बुद्धदेव की सरकार पर नक्सलवादियों के प्रति नरम रुख रखने का आरोप लगाने लगे. मि.चिदंबरम ने कहा कि राज्य सरकारों को नक्सलवादियों के सफाए के लिए केंद्र से तालमेल बिठाना चाहिए. दंतेवाड़ा के जंगलों में जो कुछ हुआ उसे भी राज्य ख़ुफ़िया विभाग की विफलता बता कर चिदंबरम पल्ला झड़ने की कोशिश में लगे हैं. गृहमंत्री के रूप में जिम्मेदारी लेने से बचने की उनकी कोशिशों का पहले पश्चिम बंगाल फिर छत्तीसगढ़ की सरकार ने कड़ा विरोध किया है. उधर दंतेवाड़ा की घटना ने अन्दर ही अन्दर केंद्र सरकार को हिलाकर रख दिया है. भीतर से मि. चिदंबरम भी समझ रहे हैं की समस्या की जड़ कहाँ है और कमी किस स्तर पर है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि फिलहाल वे राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं कर रहे. सवाल ये है कि क्या यह राजनीति नासूर बनते जा रहे नक्सलवाद से थोड़ी भी राहत दिला पाएगी. जब तक सरकारें नक्सलवाद की विचारधारा के  उदभव स्थल  तक नहीं पहुंचतीं तब तक राहत मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता. नक्सलवाद और आतंकवाद के फर्क को समझना होगा. मजहब के नाम पर खून बहाने वालों और खोखली ही सही पर क्रांति के नाम पर हिंसा को जायज ठहराने वाले गुमराह नौजवानों में कुछ तो अंतर होगा. जाहिर है सरकार को दोनों से निपटना है लेकिन दोनों के लिए तरीका तो अलग-अलग होना चाहिए ना. उदारीकरण जैसे भ्रम से भरे शब्द का इस्तेमाल कर देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया के लिए खोल देने वाले मनमोहन सिंह ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक इंटरव्यू  में बड़ी मासूमियत से कबूल किया था कि भूमंडलीकरण के पहले चरण में गरीबी बढ़ेगी. मनमोहन सिंह की खासियत यह है कि वे खतरनाक से खतरनाक बात मुस्कुराते हुए बड़ी सहजता  से कहते हैं. लेकिन बात जब देश में बढ़ती गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से निपटने की हो तो डाक्टर सिंह की यह सहजता काम नहीं आती. नक्सलवाद के मसले पर भी वे अप्रसांगिक हो जाते हैं. गृहमंत्री चिदंबरम भी कुछ कर नहीं पा रहे. बस राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी डालने की राजनीति करके काम चला रहे हैं. कानून व्यवस्था राज्य का विषय है यह कौन नहीं जानता लेकिन नक्सलवाद की समस्या का समाधान अकेले राज्य तो नहीं कर सकते. केन्द्रीय सुरछाबलों और राज्य मशीनरी के बीच तालमेल जरूरी है लेकिन सही मायनों में तालमेल के लिए कोरी राजनीति से ऊपर उठकर ईमानदार कोशिशें होनी चाहियें.           

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भारत मैं नक्सल समस्या का समाधान कैसे होगा

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